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________________ संक्षिप्त इतिहास] देश की ऐसी परिस्थिति का प्रभाव साहित्य और भाषा पर भी पड़ा। हिन्दी-साहित्य में शृङ्गाररस के पुट को लिये हुए वीररसप्रधान रचनायें रची गई। इन रचनाओं में कवि अपने आश्रयदाता नरेश की कीर्ति-कौमुदी का विस्तार करने में ही अपना गौरव समझता था। इस तरह उस समय का काव्य एक परिधि में सीमित हो गया था। प्रारंभ में इस प्रकार की रचनायें 'रासा' नाम से पुकारी जाती थीं। किन्तु यह रासा साहित्य तेरहवीं शताब्दि से पहले का नगण्य है। 'खुमानरासा' ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसे नवीं या दशवीं शताब्दि का कह सकते हैं; परन्तु वह मूलरूप में प्राप्त नहीं है। उपलब्ध प्रतियों में महाराणा प्रताप तक का वर्णन मिलता है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि उसमें प्रक्षिप्त भाग कितना है ? वास्तव में "पृथ्वीराजरासो" से ही रासा-साहित्य का प्रारंभ होता है, जिसे कवि चंदबरदाई ने संवत् १२२५-१२४९ के मध्य कभी रचा था। हिन्दी जैन-साहित्य पर जब हम दृष्टि डालते हैं तो वहाँ भी १३ वीं शताब्दि से पहले का कोई 'रासा' ग्रन्थ देखने को नहीं मिलता । यद्यपि यह अवश्य है कि अभी जैन भंडारों की ठीक से व्यवस्थित शोध-खोज नहीं हुई है और यह संभावना है कि उनमें इससे भी प्राचीन रासा-प्रन्थ मिल जावे। जो हो, भाषा जैनसाहित्य 'रासाओं' से रिक्त नहीं है। उनकी विशेषता यह है कि कवि ने उन्हें किसी व्यक्तिविशेष की प्रशंसा करने तक सीमित नहीं रक्खा है, बल्कि कविकल्पना की उसमें पूरी उड़ान ली गई है। यद्यपि जैन-रासा खासकर धर्मवार्ता को लेकर रचे गये हैं, परन्तु उनमें यथावसर सब ही रसों का प्रतिपादन हुआ मिलता
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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