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संक्षिप्त इतिहास
(८) धंध परियो सवल जग (धंधे पढ़ा सकल जग) (९) भले भए जि तुरंसह । (१०) किवादह छुत्तउ वीरु उग्धाडि तुरंतउ । (११) मिणउ कामसरेहि अयाणउ। '
(अज्ञानी कामशर से भिंद गया) (१२) सूरु ण भूलह हथियारु । (१३) पाइ लागि कर जोडि मनावइ । (१४) खेलहु पवंचु ( खेलो प्रपंच) (१५) गं अंधं लड वेवि णयण (मानो अन्धे को दो नयन मिले),
इस प्रकार अपभ्रंश-भाषा से परिवर्तित होकर हिन्दी बनती आ रही थी । पाठक, इस परिवर्तनमय सुधार-संक्रान्ति का दिग्दर्शन पूर्व पृष्ठों में कर चुके हैं।
आदिकाल के अन्तिम पाद में अवश्य ही भाषा-रचनाओं का अपना स्थान हो गया था, जो मध्यकाल में जाकर पूर्ण विकसित हुई थीं। भाषा के इस निर्माण में देश की तत्कालीन परिस्थिति का प्रभाव भी कारण था। यह समय मुसलमानों के आक्रमण का था। राजपूत लोग अपने अपने कुलाभिमान और वैयक्तिक महत्त्वाकांक्षा में मस्त थे । उन्हें अपने व्यक्तिगत गौरव की रक्षा का बड़ा ध्यान था, देश के गौरव की परवाह किसी को नहीं थी। राजपूतों की शक्ति पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता में क्षीण हो रही थी। पौराणिक हिन्दूधर्म के प्रचार ने जैनधर्म को हतप्रभ बना दिया था-राजपूत लोग जैनधर्म से विमुख हो गये थे-अहिंसा देवी की सात्त्विक उपासना का स्थान हिंसक भवानी ने ले लिया था। मांस और मदिरा का व्यवहार बढ़ गया था। देश की