________________
आदिकाल का साहित्य और गद्य भाषा।
(११ वीं से १४ वीं शताब्दि) पूर्वयुग की हिन्दी का आदिकाल दो प्रकार की रचनाओं से ओत-प्रोत है । जिसे आज हम 'हिन्दी' कहते हैं, वह पहले 'देशभाषा' अथवा 'भाषा' नाम से प्रसिद्ध थी । 'भाषा-भक्तामर' कहने से आज भी एक जैनी समझ जाता है कि कहने का मतलब हिन्दीभाषा में रचे हुए 'भक्तामर' से है। आदिकाल में उस भाषा की " रचनायें उतनी अधिक नहीं मिलती, जितनी कि अपभ्रंश-भाषा की कृतियाँ उपलब्ध हैं। अत एव इस काल को यदि 'अपभ्रंश-भाषाकाल' कहा जाय तो अनुपयुक्त नहीं है। अपभ्रंश प्राकृतभाषा से संक्रान्ति करके ही पुरानो हिन्दी कहिये देशी भाषा अस्तित्व में आ रही थी। उस पुराने देशी भाषा साहित्य के मुहावरे और छन्द परवर्ती हिन्दी में देखने को मिलते हैं-वह अपभ्रंश साहित्य से हिन्दी में आये, यह स्पष्ट है । उनके कुछ उदाहरण देखिये
(१)रु जलणु वरु सेविड वणवासु । (२)हउं गोरड हर सामल । (३) जेहा पाणहं झुपडा (जैसा प्राणों का झोपडा) (४) छोपु अछोपु (छूत अछूत) (५) देहा देवलि सिउ वसइ (देह देवल में शिव बसे) (६) मंतुण संतुण धेउण धारण ! (७)सा पुत्तहो गेहें विणि जिविणे; गुरु सक्कर लड्डुव लेवि स्खणे !
(वह पुत्र नेह से दिनोंदिन गुद शक्कर के बड्दु कांती)