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________________ संक्षित इतिहास] उपर्युक्त उल्लेखों से स्पष्ट है कि १६ वीं से १८ वीं शताब्दि तक के समय में पुरानी हिन्दी अपने नये रूप में ढल रही थी, उसमें से अपभ्रंश के शब्द और मुहावरे हटाये जा रहे थे, कविगण दोनों तरह की रचनायें रचते थे, जैसे कवि भगवतीदास के उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है। कवि हरिचन्दजी ने अपभ्रंश हिन्दी मिश्रित भाषा के साथ ही नये रूप में ढली पुरानी हिन्दी में भी रचनायें रची थीं। उनकी दो रचनायें हमारे संग्रह के संवत् १९३४ के लिखे हुए गुटका में सुरक्षित हैं, जिनके नाम (१) पंचकल्याण के प्राकृत छंद और (२) पंचकल्याण महोत्सव हैं। इन दोनों के नमूने क्रमशः देखिये9. शक्क चक्क मणि मुकट बसु, चुंबित घरण जिनेश । गम्भादिक कल्लाण पुण, वण्णउ भक्ति विशेष । गभ्भ जम्म तप णाण पुण, महा अमिय कल्लाण । चटविय शक्का आयकिय, मणवक्काय महाण । सौधम्मिदास अवधिधारा, कल्लाण गम्भ जिण अवधारा । णयरी रचणा अग्गादिण्णी, कुम्वेर सिक्ख सिर धर लिण्णी । कल्लाणक णिव्वाण यह थिर सब पढ़ि दातार । दीजे जण हरिचन्द को लीजे अपणे सार । २. मंगलनायक घन्दि के, मंगल पंच प्रकार । वर मंगल मुझ दीजिये, मंगल वरणन सार । मो मति अति हीना, नहीं प्रवीना, जिनगुण महा महंत । अति भक्तिभाव ते, हिये चावते, नहिं यश हेत कहत । सबके माननको, गुण जाननको, मो मन सदा रहंत । जिनधर्म प्रमावन, भव भव पावन, जण हरिचंद चहत। xx . x
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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