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________________ [हिन्दी जैन साहित्य को तीन तीन वसु चंद्र ये, संवत्सरके भय । जेष्ठ सुक्क सक्षम्मि सुभग, पूरन पदौ निसंक। ___इस प्रकार पूर्वोल्लिखित काव्य के उद्धरणों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट है कि किस प्रकार कालक्रम से अपभ्रंश-प्राकृतभाषा परिवर्तित होती हुई हिन्दी के प्राचीन रूप को प्राप्त हुई थी। जैनसाहित्य में हिन्दी की उत्पत्ति का इतिहास इस प्रकार सुन्दर रूप में सुरक्षित है । अब विज्ञ पाठक यह समझ गये होंगे कि किस तरह हिन्दीभाषा अपने प्राचीन और अर्वाचीन रूप में अवतरित हुई थी। __ अब यहाँ पर यह देखना आवश्यक है कि हिन्दी जैन-साहित्य का काल-विभाग किस रूप में किया जा सकता है। वैसे तो समूचा जैन साहित्य दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों की अपेक्षा दो भागों में बँटा हुआ है, परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय की हिन्दी रचनायें अत्यधिक नहीं हैं। इसलिए हिन्दी जैन-साहित्य में वह भेदविवक्षा करना आवश्यक नहीं है। हिन्दी जैसी राष्ट्रभाषा से सम्बन्धित साहित्य में ऐसा कोई भेद शोभता भी नहीं है। हाँ, समय की अपेक्षा से समूचा हिन्दी जैन-साहित्य दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। इस विभाजनक्रम में भाषा का रूप भी एक कारण है। इन दोनों भागों का हम (१) पूर्वयुगभाग, (२) और नवयुगभाग नाम से उल्लेख करेंगे। पूर्वयुगभाग में अपभ्रंश-प्राकृतभाषा और उससे उद्भूत पुरानी हिन्दीभाषा की रचनाओं का समावेश होता है और नवयुगभाग में खड़ी बोली में रची गई आधुनिक शैली की कृतियाँ आती हैं। पूर्वयुग का निम्नलिखित काल-विभाग करना उपयुक्त है
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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