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________________ संक्षिप्त इतिहास यह शायद किन्हीं विजयराय द्वारा रची गई है। मैनपुरी के उपर्युल्लिखित शास्त्र-भंडार में एक अन्य गुटका सं० १६८० का लिखा हुआ है । इसमें देवसेन-कृत 'तत्त्वसार' मुनि योगचन्द्र का 'योगसार' एवं ढाढसीगाथायें, टंडाणारास आदि रचनायें लिखी हुई हैं। इनमें से पहले दो ग्रन्थ तो १० वी, ११ वीं शताब्दि की रचनायें हैं। अवशेष १६ वीं, ५७ वीं शताब्दि की रचनायें हैं। उनका नमूना देखिये टूटंति पलालहरं, माणुसजम्मम पाणियं दिन्न । जीवा जे हणणाया, गाऊण ग रक्खिया जेहिं । वियलिंदिय पंचेदिय, समणा अमणा य पजपजन्ता । थावर बायर सहुमा, मणवयकारण . रक्खिन्वा । जो जाणइ अरहन्तो, दव्वस्स गुणस्थ पजयत्तेहि । सो जाणदि अपाणं, मोहो खुभु जाइ तस्स लयं । ढाढसीगाथायें १८. x तूं स्याणा तूं स्याणा जियणे तूं स्याणा वे । दसणु णाणु चरणु अप्पणु गुण क्यों तजि हुवा भयाणा वे। मोह मिथ्यात पडिड नित, परवसि चहुं गति मांहि भयाणा के। नरकगतिहिं दुख छेदणु, भेदणु ताडण ताप सहाणा थे। धम्म सुकल धरि ध्यानु अनूपभ, लहि निजु केवल णाणा वे जपति दास भगवति पावहु, सासर सुहु निव्वाणा थे। इन ही कवि भगवतीदास की रची हुई और भी कृतियाँ इस गुटके में दी हुई हैं, जिनमें से कुछ की भाषा तो बिल्कुल हिन्दी सी है, जैसे-'नेमि जिनिंद नमौं धरि भाउ, सुमति सुगति दाता सिवराउ'।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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