SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संक्षिप्त इतिहास ] ३७ पुत्र राजकुमार ( युवराज ) भी उनके दरबार में मिलने के लिए आकर प्रतीक्षा करता था बड़भागी घर लच्छि बहु, करुणामय दिवदान, नहिं कोउ वसुधावधि वणिक भारहमल्ल समान । ठाड़े तो दरबार राजकुमर वसुधाधिपति " लीजे न इक जुहारु भारमहल सिरिमाल कुल । इस अपूर्व ग्रन्थ का पता श्रीमान् जुगलकिशोरजी मुख्तार को नया मन्दिर दिल्ली के भण्डार का निरीक्षण करते हुए चला था । इस ग्रन्थ में संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत और हिन्दी भाषाओं के छंदः शास्त्रीय नियम दिये हुए हैं, और ऐसे छंदों के नमूने दिये हैं जो अपभ्रंश, प्राकृत और पुरानी हिन्दी के मिश्ररूप में हैं । सचमुच यह ग्रन्थ ऐसा अपूर्व है कि इसका प्रकाशन भाषाज्ञान के लिए महत्त्वपूर्ण है। किसी प्रकाशक को इसे जल्दी प्रकाशित करना चाहिये । सत्रहवीं शताब्दि में तो उच्चकोटि की हिन्दी रचनायें रची जाने लगी थीं, किन्तु उस समय तक पुरानी अपभ्रंश भाषामिश्रित हिन्दी में रचना करने का मोह जनता से उठा नहीं था । इस समय से उन्नीसवीं शताब्दि तक ऐसी मिश्रित भाषा की रचनायें मिलती हैं। पाठकों के अवलोकनार्थ हम उनके कतिपय उदाहरण यहाँ उपस्थित करते हैं । हमारे संग्रह में सत्रहवीं शताब्दि का लिखा हुआ एक गुटका है, जिसे ब्र० ज्ञानसागर ने ब० मतिसागर के पठनार्थ लिखा था । उसमें एक रचना 'चौबीस तीर्थकरों का गीत' नामक है । उसकी भाषा पुरानी हिन्दी है । देखिये
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy