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________________ ३६. [हिन्दी जैन साहित्य का नाथचरित्र' (वि० सं० १५८७) अपभ्रंश प्राकृत में है, परन्तु फिर भी उसकी भाषा दुरुह नहीं है । यथा इह जोमणिपुरु पुरवरह सारु, जहु वंणणि इह सक्कु वि असारु । कवि राजमल्ल का 'पिंगलशास्त्र' भी इसी समय की रचना है। वह तत्कालीन हिन्दी काव्यधारा और भाषाशैली का दिग्दर्शन कराने के लिए बड़े महत्त्व का ग्रन्थ है। कवि ने उसे नागोर के कोट्यधीश धनकुबेर राजा भारमल्ल के लिए रचा था। राजा भारमल्ल की प्रशंसा में कवि ने जो पद्य लिखे हैं, उनमें से कतिपय यहाँ उद्धृत किये जाते हैं स्वाति बुंद सुरवर्ष निरंतर, संपुट सीपि धमो उदरंतर । जम्मो मुक्ताहल भारहमल, कंठाभरण सिरी अवलोवल । अर्थात् सुरकृत वर्षा की स्वातिबूंद को पाकर धर्मों के उदररूपी सीपसंपुट में भारमल्लरूपी मुक्ताफल उत्पन्न हुआ और वह श्रीमाला का कंठाभरण बना । यह कैसी सुन्दर कल्पना है ! निम्नलिखित छप्पय छंद में राजा भारमल्ल के दैनिक व्यय का लेखा कवि ने बताया है, वह देखिये सवालक्ख उग्गवइ भानु तह ज्ञानु गणिजह , टंका सहस पचास रोज जे करहिं मसक्कति । टंका सहस पचीस सुतनसुत खरचु दिन प्रति , सिरिमालवंस संघाधिपति बहुत बडे सुनियत श्रवण , कुलतारण भारहमाल सम कौन बढउ चढहिं कवण । इस पद्य का अर्थ सुगम है। इससे भारमल्ल का वैभव स्पष्ट है। उनका प्रभाव भी बहुत बढ़ा-चढ़ा था। अकबर बादशाह का
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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