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________________ [हिन्दी जैन साहित्य का उपर्युक्त दोनों उदाहरण हिन्दी भाषा की प्राचीनता को एक डेढ़ शताब्दि और बढ़ा देते हैं। हम कह सकते हैं कि ग्यारहवीं शताब्दि में उच्च कोटि की रचनायें पुरानी हिन्दी में रची जाती थीं । समयानुसार आगे चलकर वह पुरानी हिन्दी कैसे कैसेपरिवर्तित होती गई, यह भी देखिये। तेरहवीं शताब्दि की रचनाओं में कवि लक्खण कृत 'अणुवयरयणपईव' और मुनि यशःकीर्तिप्रणीत 'जगत्सुंदरीप्रयोगमाला' उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। पहले में जैन श्रावक के व्रतों का निरूपण है, और दूसरा वैद्यक विषय का सर्वोपयोगी ग्रन्थ है। इन दोनों प्रन्थों की भाषा का दिग्दर्शन कीजिये: इह जउणा णइ उत्तर तडस्थ, मह णयरि रायवडिव पसस्थ । धण कण कंचण वसा सरि समिद्ध, दाणुणण्यकर जण रिद्धिरिख । किम्मीर कम्म णिम्मिय खाण, सट्टल सतोरण विविह वण्ण । पंदुय पायारूष्णइ समेय, जहि सहहिं णिरंतर सिरिनिकेय । इसे हिन्दी में इस प्रकार पढ़ सकते हैं:इस जमुना नदि के उत्तर तट पै, महा नगर रावड्डिय है प्रशस्त । धन कन कंचन वन सरित् समृर, दान दिये कर उच्च किये जन प्रतिबद्ध । पंचरंग कम निर्मित रमणीक, सतोरण स-अट्ट विविध वर्गीक । पांडु उच्च प्राकार समेत, जहँ शोभे निरंतर श्री निकेत । 'जगत्सुंदरीप्रयोगमाला' की भाषा का भी नमूना देखिये, जो १३वीं शताब्दि के उत्तरार्ध की रचना बताई जाती है: णमिण परम भत्तीए सजणे विमल सुन्दर सहावे, जे गिग्गुणे वि कम्बे इणिति दोसा जपन्ति ।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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