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________________ संक्षिप्त इतिहास] अर्थात्:नमस्कार परम भक्ति से सजनों को, जो विमल सुन्दर स्वभाव के । यद्यपि निर्गुण यह काव्य है, तो भी दोष न देखें वे । और देखिये: णायर पच्छा तह दाडिमं च मगहाए संजुत्तं , भागुत्तरेण पीयं पणासणं गहणि रोयस्स । अर्थात: नागर पत्था व दाडिम भी मगहा से संयुक्त , भागुत्तर जो पीजिये नाशे गृहणी रोग । श्री विनयचन्द्र कृत 'उवएसमाला-कहाणय-छप्यय' भी इस शताब्दि की उल्लेखनीय रचना है । यह छप्पय छंद में रची गई है, जिसका प्रयोग हिन्दी काव्य में विशेष हुआ है। इसका अन्तिम छप्पय निम्न प्रकार है: इणि परि सिरि उबएसमाल सु रसाल कहाणय , तव संजम संतोस विणय विजाइ पहाणय । सावय सम्भरणस्थ अस्थपय छप्पय छन्दिर्हि, रयणसिंह सूरीस सीस पभणइ आणंदिहिं । अरिहंत आण अणुदिण उदय, धम्ममूल मत्थइ हउं । भो भविय भत्तिसत्तिहिं सहल सयल लच्छि लीला लहउ । चौदहवीं शताब्दि के अनेक ग्रन्थ मिलते हैं, परन्तु यहाँ पर दो तीन ग्रन्थों के उद्धरण देना पर्याप्त है। पहले कविवर विबुध श्रीधर के रचे हुए ‘वडमाणचरिउ' को लीजिये। इनके रचे हुए भविष्यदत्तकथा, चन्द्रप्रभचरित, शान्तिजिनचरित और श्रुतावतार ग्रन्थ भी हैं। 'वडूमाणचरिउ' की भाषा का नमूना इस प्रकार है:
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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