________________
संक्षिप्त इतिहास]
__ प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य श्री हेमचन्द्र ने भी अपने 'व्याकरण' ग्रन्थ में अपभ्रंश प्राकृत के छंदों का उल्लेख किया है। उनकी रचना के नमूने देखिये । एक विरहिणी का चित्रण वह क्या खूब करते हैं :
'एक्कहिं अक्खिहिं सावणु अन्नहिं भवउ । माहव महिअल-सस्थरि गण्डथले सरउ ॥ अङ्गिहिं गिम्ह सुहच्छी-तिलवणि मज्जुसिरु ।
तेइ मुद्हें मुह-पङ्कइ आवासिउ सिसिरु । इसी प्रकार के शृङ्गार रस पूरक और भी छंद उनकी रचनाओं में मिलते हैं।
बारहवीं शताब्दि में मुनि योगचंद्र हुए थे । उनका रचा हुआ एक ग्रन्थ 'दोहासार' नामक भी है, जिसे 'योगसार' कहते हैं । इस ग्रन्थ की भाषा बिल्कुल पुरानी हिन्दी है। देखिये उसके उद्धरण यही बताते हैं:
अजर अमर गुणगणनिलय जहि अप्पा थिर थाइ ,
सो कम्महि ण च बंधयउ संरिचय पुग्व विलाइ । अर्थात्
अजर अमर गुण निलय जेहि मातम थिरथाय , सो कर्महि नहिं बंधयह संचित पूर्व विलाय । और देखिये:__अप्प सरूवह जो रमइ छंडवि सव ववहार ,
सो सम्माइट्ठी हवइ लहु पावइ भव पारु । अर्थात
आत्म स्वरूपे जो रमै छांदि सकल व्यवहार । सो सम्यकदृष्टी भवै सहज पाय भव पार ।