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[ हिन्दी जैन साहित्य का
णंणु हो संभवंतु वुपवित्तहूं, णिम्मल दंसणणाण चरितहूं । णंण होउ उप्पंच कल्लाणइ, रोयसोय खयकरण विहाणहूं ॥
महाकवि पुष्पदन्त ने अपना 'नागकुमारचरित्र' णंण नामक महानुभाव के लिये रचा था । उपर्युक्त छंद कवि ने उनको ही लक्ष्य करके लिखे हैं । हिन्दी में हम उनको इस प्रकार पढ़ सकते हैं
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आनन्दो सम्यक् शासन सम्मति, आनन्दो प्रजा सुख नांदो नरपति | चिन्ते चिन्ते बरस इक बीता, नांदो णंण होय णंण होय दीर्घायुष । णंण को सम्भव णंण को होवे
दर्शन ज्ञान
हो उपजै, निर्मल पंचकल्याणं, रोग शोक क्षयकरण
चरित्रम् ।
विधानं ।
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कवि धनपाल, मुनि श्रीचंद्र आदि कविगण भी ग्यारहवीं शताब्दि के रत्न हैं । श्रीचंद्रमुनि अणिहलपुरनरेश मूलराज प्रथम वि० सं० ९९८ से १०४३ के समकालीन थे । उन्होंने छोटी छोटी रोचक कथाओं से पूर्ण एक कथाकोष रचा था । देखिये इनकी भाषारचना हिन्दी के कितने निकट पहुँचती है:
पणवेष्पिणु जिण सुबि सुद्धमई, चिंतइ मणि मुणि सिरिच्चन्दु कई । संसार असार सब्बु अथिरु, पिय पुत मित्त माया तिमिरु | खणि दी सइ खणि पुणु उस्सरह, संपय पुणु संपहे अणु हरइ । जणु गिरि वाहिणि वेयगऊ, लायण्णु वण्णु कर सलिल सऊ । जीवित जलवुब्वय फेण णिहु, हरिजालु वरज्जु अवज्जु गिहु ।
इस कविता को हिन्दी में बताने की आवश्यकता नहीं है । यह तो स्वयं सुबोध है । इसे पुरानी हिन्दी कहें तो अतिशयोक्ति न होगी । इस ग्रन्थ को तत्कालीन कथासाहित्य का सर्वोपयोगी अंश समझिये |