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________________ संक्षिप्त इतिहास] महाकवि धवल भी दसवीं शताब्दि के विद्वान् हैं। उनका रचा हुआ १८००० श्लोक प्रमाण 'हरिवंशपुराण' कारंजा से उपलब्ध हुआ है । उसमें भ० अरिष्टनेमि, भ० महावीर और महाभारत की कथा वर्णित है । कवि की भाषा का नमूना भरतक्षेत्रवर्ती विदेह देश के इस वर्णन में देखिये:जंबूदीवहिं सोहणु असेसु, इह भरत खेत्तिणं सुरणिवेसु । धर हरिहिं सरिहिं सुरउववणेहिं, आसिहि महिसिहि परुगोहणेहि । गामिहि गोठिहि कोहि पुरेहि, बहु विहसायहि कमलायरेहि , अर्थात् इस जम्बूद्वीप में शोभायमान, सुरलोक के समान भरतक्षेत्र है । उसमें पर्वत, नदी, देवोपवन, आशिखि, महिषी, गोधन, गाँव, गोष्टि, कोट, पुर व अनेक विकसित कमलाकारों से सुसज्जित भुवनप्रसिद्ध विदेह देश है। इस शताब्दि के कवि पनदेव अपने 'पासणाह चरिउ' में इस भाषा को देशी भाषा कहते हैं: "वायरणु देखि सहत्थ गाढ़ छंदालंकार विसाल पाद । ससमय-परसमय वियारसहिय, अवसहवाव दूरेण-रहिय ॥" ग्यारहवीं शताब्दि के साहित्यकारों में महाकवि पुष्पदंत महान् हैं। उनके रचे हुए 'महापुराण' 'यशोधरचरित्र' और 'नागकुमार चरित्र' प्रकाश में आ चुके हैं। अपभ्रंश भाषा साहित्य के ये महाकाव्य हैं । कवि की रचनाशैली और भाषा का नमूना इस छंद में देखिये: गंदउ सम्मइ सासणु सम्मइ, गंदट पय सुहणंदणु गरवा । चिंतित चितिउ वरिस उपाउसु, नंद गंणु होउ दीहाउसु॥
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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