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[ हिन्दी जैन साहित्य का
श्री देवसेन के रचे हुए ग्रन्थ 'तत्त्वसार' का पता हमें मैनपुरी जैन मंदिर के एक गुटका में लगा है। उसका नमूना भी देखिये :सो ऊण तच्चसारं, रइयं मुणिणाह देवसेणेण
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जो सहिठ्ठी भावर, सो पावद्द सासयं सोक्खं । इन उल्लेखों से हिन्दी भाषा का सादृश्य अपभ्रंश प्राकृत से स्पष्ट है, किन्तु सादृश्य दिखला कर ही संतोष धारण कर लेना हमें अभीष्ट नहीं है, बल्कि अपभ्रंश भाषा की रचनाओं से शताब्दि प्रति शताब्दि के उद्धरण उपस्थित करके हम हिन्दी के वर्तमान रूप के आविर्भाव का विकासक्रम स्पष्ट कर देना चाहते हैं । अतएव निम्नलिखित पंक्तियों में प्रत्येक शताब्दि के साहित्योद्धरण उपस्थित किये जाते हैं। पहले ही दसवीं शताब्दि के उद्धरण मुनि रामसिंहजी के रचे हुए 'पाहुड दोहा' ग्रन्थ ( वि० सं० १००० ) से देखिये:
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मूदा देह म रज्जियह देह ण अप्पा होइ, देहहिं भिण्णउ णाणमउ सो तुहुँ अप्पा जोह । इसको हिन्दी में ऐसे पढा जा सकता है:
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मूढ़ देह में रंजित होते, देह न आत्मा होय देह से भिन्न ज्ञानमय, सो तू आत्मा जोय । एक दोहा और पढ़िये :
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तिहुयणि दीसह देउ जिण, जिणवरि तिहुवणु एउ जिणवरि दीसह सयलु जगु को वि ण किज्जइ भेठ । हिन्दी में इसका यह रूप होगा:
त्रिभुवन में दीखे देव जिनवर में त्रिभुवन एह, जिनवर दीखे सकल जग कोई न करिये भेद ।