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________________ संक्षिप्त इतिहास] स्वयंभू का समय वि० सं०७३४ के बाद का है। उनके रचे हुए ग्रन्थों का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं। उनकी अपभ्रंशभाषा को विद्वज्जन प्राचीन हिन्दी ही मानते हैं, है भी वह हिन्दी के बहुत निकट । देखिये : "बड्डमाण-मुह-कुहर-विणिग्गय, राम-कहाणए एह कमानय । अक्खर-वास-जलोह-मणोहर, सुयलंकार-छंद-मच्छोहर । दीह-समास-पवाहावं किय, सक्कय-पायय-पुलिणालं किय । देसीभासा-उभय-तडुजल, कवि-दुक्कर-घण-सह-सिलायल।" महाकवि स्वयंभू के पश्चात् वि० सं० ९९० में श्रीदेवसेनजी ने 'दर्शनसार' की रचना की थी और उसी समय के लगभग 'तत्त्वसार' और 'सावयधम्मदोहा' भी उन्होंने रचे थे। उनके निम्नलिखित दोहों का साम्य हिन्दी भाषा से कैसा बैठता है, यह देखियेः सुणु दंसण जिय जेण विणु सावय गुण णवि होइ । जह सामग्गि विवजियह सिज्मइ कज्जु न कोह। इसे हिन्दी में यूँ कह सकते हैं: सुन दर्शन जिय जा विना श्रावक गुण ना होइ , जिम सामग्रि विवर्जिते सीझे काज न कोह। और भी देखिये:एह धम्म जो आयरह चउ बण्णह मह कोह । सो गरणारी भन्वयण सुरइय पवह सोइ । इसे हिन्दी में ऐसे कह सकते हैं: एह धर्म जो भाचरे चतुर्वर्ग में कोय , सो नरनारी मम्ब अन पुरगति पाये सोय ।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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