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[ हिन्दी जैन साहित्य का
आचार्यों को है । उन्होंने ही प्राकृत भाषाओं को अपने धर्म - प्रचार का माध्यम बनाकर उन्हें साहित्य का रूप दिया । सारा ब्राह्मण साहित्य देख जाइये, उसमें राजशेखर जैसे इनेगिने ही उदाहरण ऐसे कवियों के मिलेंगे जिन्होंने प्राकृत भाषा की ओर कुछ सच्ची सहानुभूति प्रकट की और उसे अपनाया । शेष सब ओर से वही 'भाषारण्डायाः किं प्रयोजनम्' का शुभाशीर्वाद मिला है। हाँ, नाटक ग्रन्थों में अवश्य कुछ प्राकृत के वाक्य मिलते हैं । परंतु स्व० पं० चन्द्रधरशर्मा गुलेरी के शब्दों में 'वह केवल पंडिताऊ या नकली या गढ़ी हुई प्राकृत है... वह संस्कृत मुहावरे का नियमानुसार किया हुआ रूपान्तर है, प्राकृत भाषा नहीं है' ( ना० प्र० पत्रिका भा० १ अं० २ पृष्ठ ८ ) अतः यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि भारत में अपभ्रंश प्राकृत भाषा को मध्यकाल के प्रारंभ से जैनियों ने ही विशाल साहित्यिक रूप दिया । अलबत्ता बौद्धों के चौरासी सिद्धों में सरहपा नाम के एक सिद्ध ने कुछ दोहे के ग्रन्थ अवश्य रचे थे, जिनका समय सन् ७६९ से ८०९ अनुमान किया गया है । उनके दोहों के यह नमूने हैं
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जहि मम पवन न संचरद्द, रवि तहि वट चित्त विसाम करु, सरहे घोरन्धार चन्दमणि, जिमि एखुकणे, दुरिआ
परम महासुद्द
Chasin
- गङ्गा पुरातस्थांक, १९३३, पृ० २४६ ॥ जैन अपभ्रंश साहित्य में सर्वप्राचीन उपलब्ध रचनायें महाकवि स्वयंभू और आचार्य श्री देवसेन की हैं । महाकवि
ससि नाहिं पवेस ।
उबेस ॥
कहिय
जोअ
करेइ |
अशेष हरेह ॥