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________________ संक्षिप्त इतिहास ] १५ विवेकी पुरुष भी उसमें बहे, परंतु वह तत्क्षण संभल गये । उन्होंने अपनी शृङ्गाररस की रचना ही नदी में फेंक कर नष्ट कर दी और शृङ्गारी कवियों की भर्त्सना करके कहा: “ऐसे मूढ कुकवि कुधी, गहें मृषा पथ दौर । रहें मगन अभिमान में, कहें और की और ॥ वस्तु सरूप लखें नहीं, बाहिज दृष्टि प्रमान । मृषा विलास विलोकके, करें मृषा गुनगान ॥ " कैसा मृषा गुनगान, यह भी कविवर के शब्दों में सुनिये "मांसकी ग्रन्थि कुच कंचन कलस कहें, --- कहें मुख चंद जो सलेषमाको घरु है । हाडके दर्शन आहि हीरा मोती कहे ताहि, मांसके अधर ओठ कहे free है | हाड दंभ भुजा कहे कौल नाल काम जुधा, हाड़ी के थंभा जंघा कहे रंभा तर है । यों ही झूठी जुगति बनावें औ कहावें कवि, एते पै कहें हमें शारदा को वरु है ॥" कविवर भूधरदासजी ने इसीलिये कवियों को बोध देने के लिये कहा था: " राग उदय जग अन्ध भयो, सहजे सब लोगन लाज गंवाई | सीख बिना नर सीखत है, विषयानिके सेवनकी सुधराई ॥ तापर और रचें रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई । अंध असूशनि की अंखियान में झोंकत हैं रज राम दुहाई ॥” बिना सिखाये ही लोग विषयसुख सेवन की चतुरता सीख रहे हैं, तब रसकाव्य रचने की क्या आवश्यकता ? यह तो लोगों के प्रति बड़ी निष्ठुरता है । इस निष्ठुरता को लक्ष्य करके आगे
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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