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________________ [हिन्दी जैन साहित्य का कविवर विधाता को उलाहना देते हैं और कहते हैं कि हरिणी की नाभि में तुमने कस्तूरी क्यों बनाई ? शृङ्गारी कवियों की जीभों में बनाते तो अच्छा था। कविवर के हृदय में विश्वहित कामना हिलोरे ले रही थी, उसकी प्रेरणा ही का परिणाम यह छन्द समझियेः"हे विधि भूल मई तुम ते, समझे न कहा कस्तूरि बनाई। दीन कुरंगन के तन में, तृन दंत घरे करना नहिं भाई ॥ क्यों न करी तिन जीमन जे, रसकाम्य करें र को दुखदाई। साधु अनुग्रह दुजैन दंड, दुहु सधते विसरी चतुराई ॥" जहाँ श्रृंगारी कवि नायिकाओं के स्तनों को स्वर्णकलशों की और उनके श्यामल अप्रभाग को नीलमणि की ढंकनी की उपमा देकर प्रशंसा करते हैं, वहाँ जैन कवि उनके लिये सुंदर संबोधक उक्ति को चरितार्थ कर कुछ और ही कहते हैं। देखिये वह :"कंचन कुम्भन की उपमा, कहि देत ग्रोजन को कवि वारे । कपर श्याम बिलोकत के, मनि नीलम की लंकनी रंक ढारे ।। यो सत बैन कहे न कुपंडित, ये युग आमिष पिंक उपारे । साधन झार दई मुंह छार, मये इहि हेत किधौं कुच कारे ॥" इस प्रकार हिन्दी जैनवैन में साहित्यक शैली का निर्वाह प्रौढ संयम और सात्त्विक बुद्धि को आगे रखकर किया गया है। शृंगार रस सर्वथा बुरा नहीं है, किन्तु उसकी अति बुरी है। जैन कवियों ने उस अति का अन्त करने के लिये ही शान्तरस प्रधान वाणी का अलख जगाया। वैसे रस तो कोई भी बुरा नहीं है। जैन शास्त्रों में यथावसर श्रृंगार रस की सात्विक धारा भी बहती मिलती है।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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