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________________ १४ [ हिन्दी जैन साहित्य का “काँपत गात सकात बतात है, साँकरी खोरि निशा अँधियारी, पातहू के खरके छरके धरके, उर काय रहे सुकुमारी, बीच बोधा रचे रस रीति, मनो जग जीति चुक्यो तेहि वारी । र्यो दुरि केलि करे जग में, नर धन्य वहां धनि है वह नारी ॥ " जगत वैसे ही वासना में अंधा हो रहा है, उसपर जगत की वासना को शृङ्गाररस की ओट लेकर और भी भड़काया जावे, तो इसका अर्थ यही है कि कवि जगत के हिये की भी फोड़ना चाहता है ! महिलाओं का भूषण शील और लज्जा है, किन्तु हिन्दी कवियों ने उनके उन स्वभावजन्य गुणों पर घातक वार किया है । महिला का महत्व और उसका आदर्श व्यक्तित्व उनकी नजर में समाता नहीं । उनकी दृष्टि में वह कामिनी बनकर नाचती है और उनके निकट यह वासनापूर्ति की वस्तु है । कौन समझदार इस विचारसरणी को सराहेगा? जरा देखिये कवि ठाकुर के इस वाक्य को और सोचिये कि क्या एक गुणवती कुलवधू उसको सुनना पसंद करेगी "रूप अनूप दई दियो तोहि तो, मान किये न सयान कहावे । वीर सुनो यह रूप जवाहिर, भाग बड़े विरले कोऊ पावे ॥ ठाकुर सूमके जस न कोऊ, उदार सुने सब ही उठि धावें । दीजिये ताहि दिखाय दया करि, जो चलिदूर तै देखनि आवे ॥” रसखान ने तो "मो पछितावो यहै जु सखी के कलंक लग्यो पर अंक न लागी" कहकर भक्तिवाद का दिवाला ही निकाल दिया है। इस दूषित विचारसरणी का प्रभाव राष्ट्र के लिये घातक सिद्ध क्यों होता । हिन्दूराष्ट्र का पतन उसका ही कुफल क्यों न माना जाय ! जैन कवियों ने यह ग़लती नहीं की । कवि बनारसीदासजी के समान
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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