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संक्षिप्त इतिहास ]
वह केवल शान्तरस प्रधान है—उसमें शृङ्गाररस का अभाव है,. इसलिये वह नीरस है । किन्तु जैन साहित्य में शान्तरस की प्रधानता दूषण न हो कर भूषण ही हो सकती है । शान्तरस प्रधान होना तो उसके लिये गौरव का कारण है, क्योंकि मनुष्य प्रकृति से ही शान्तिमय प्राणी है। दुनियाँ की शान्तिपूर्ण घड़ियों में ही सत्यं शिवं सुन्दरम् - कला का सृजन होता आया है। साहित्य के अनूठे रत्न- प्रसून शान्त मस्तक और शीतल हृदय से ही प्रसूत होते हैं । उद्विग्न मस्तिष्क और अस्थिर चित्त जगत् को लोकोपकारी स्थायी साहित्य नहीं दे सकता । अत एव जैनियों ने शान्तरस को प्रधानता देकर मानव प्रकृति के अनुरूप और उसके लिये उपयोगी कार्य किया है ।
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साहित्य मानव जीवन का निर्माता है । साहित्य राष्ट्रों को बनाता और बिगाड़ता है। जैसी विचारधारा साहित्य में बहाई जाती है, वैसी गतिविधि राष्ट्रकी होती है । मुग़ल साम्राज्य कालमें फारसी के कवियों ने सकाम प्रेम की धारा बहाकर राजपरिवार को विलासपूर्ण बना दिया | कामुकता बढ़ गई । यथा राजा तथा प्रजा की नीति हमारे यहाँ हमेशा चरितार्थ हुई है । हिन्दी कवि भी तब उस विलासिता से लदी हुई कविता से प्रभावित हुये । उस समय श्रेष्ठ कविता का माप शृङ्गाररस की पराकाष्ठा माना गया। परिणाम स्वरूप हिन्दी कवियों ने मर्यादा धर्म को उठा कर ताक्क़ में रख दिया और उनको यह गाते हुये तनिक भी लज्जा न हुई कि
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"जगहू ते कठिन संयोग परमारी को ।"
उच्छृंखलता की पराकाष्ठा का नग्न प्रदर्शन निम्न छंद में देखिये :---