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दिस इतिहास] कविवर चानतरायजी:
(१४) आरती मंगल भारती भातम राम । तन मंदिर मन उत्तम ठाम ॥ टेक ॥ सम रस जल चंदन आनंद । तंदुल तरख-सरूप अमंद ॥ मं.॥ ॥ समैसार फूलन की माल । अनुभौ सुख नेवज भरि थाल ॥ मं.॥२॥ दीपक ग्यान ध्यान की धूप । निर्मल भाव महा फल रूप ॥ मं• ॥३॥ सुगुन भविक जन इक रंग लीन । निहचै नौधा भगति प्रवीन ॥ मं० ॥४॥ धुनि सत्साह सु अनहद ग्यान । परम समाधि निरत परधान । मं० ॥ ५॥ बाहज आसम भाव बहाव । अंतर हे परमातम ध्याव । मं० ॥६॥ साहब सेवक भेद मिटाय । द्यानत एकमेक हो जाय ॥ मंगल० ॥७॥
षेवर वृन्दावनजी:
क्यों न दीनपर वह दयाल, दारुन विपति हरो करमाकर ॥ क्यों० ॥ हो अपार उदार महिमा धर, मेरी बार किम भये हो कृपनतर । वेद पुरान भनत गुन गनधर, जिन समान न भान भवभय हर ॥ क्यों०॥ सहि न जात प्रयताप तरलगर, हे दयाल गुन माल भाल वर । भविक बूंद तव शरन चरन तर, भोपाल प्रतिपाल क्षमाकर ॥ क्यों. ॥