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________________ २४२ देख सुपन की संपदा, तू मानत ये जु नर्ककी आपदा, धर्मकर्म को भलो, भैया आप निहारिये, [हिन्दी जैन साहित्य का सांचे । आंचै | कहा० ॥ २ ॥ जर है को परखो मणि कांचै 1 पर सों मति मांचे । कहा• ॥ १ ॥ ( ६ ) राग रामकली । अरे यह जम्म गमायो रे, भरे हैं० ॥ टेक ॥ * चूश्व पुण्य किये कहुँ अतिहो, तातें नरभव पायो रे । देव धरम गुरु ग्रंथ न परसै, भटकि भटकि भरमायो । अरे० ॥ १ ॥ फिर तोको मिलिते यह दुर्लभ, दश दृष्टान्त बतायो रे जो चेते तो चेत रे 'भैया', तोको कहि समुझायो रे । अरे• ॥ २ ॥ । ( ७ ) राग केदारो । छोड़ि दे अभिमान जिय रे, छांड़ि दे ॥ टेक ॥ काको तू अरु कौन तेरें, सबही हैं महिमाम । देख राजा रंक कोऊ, थिर नहीं यह थान । जिय रे० ॥ १ ॥ जगत देखत तोरि चलवो, तू भी खत भान । घरी पलकी खबर नाहीं, कहा होय बिहान । जिव रे० ॥ २ ॥ त्याग क्रोध रु लोम माया, मोह मदिरापान । राग दोषहि टार अन्तर, दूर कर अज्ञान । जिय रे० ॥ ३ ॥ भयो सुरपुर देव कबहूँ, कबहुँ नरक निदान । हम कर्मवश बहु नाच नाचे, भैया आप पिछाम । जिय रे० ॥ ४ ॥ ( ८ ) राग देवगंधार । अब मैं छांदयो पर अंजाल, अब मैं० ॥ टेक ॥ काय अनादि मोह भ्रम भारी, तज्यो ताहि तत्काल । अब मैं० ॥
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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