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________________ संक्षिप्त इतिहास] २४१ जहँ जहं भ्रम तहँ सह इनको श्रम , तू इनही को रागी । मौदू भाई ॥२॥ ए आँखें दोड रची चामकी, चामहि चाम विलोवै । ताकी ओट मोह निद्रा जुत, सुपन रूप तू जोबै; भौंदू माई ॥३॥ इन ऑलिन को कौन भरोसो, ए विनसें छिन माहीं । है इनको पुद्गलसौं परचे, तू तो पुद्रक नाही, मौदू भाई० ॥ ४॥ पराधीन बल इन आँखिन को, विनु परकाश न सूझे। सो परकाश अनि रवि शशि को, तू अपनो कर बूझै; भीद भाई ॥५॥ खुले पलक ए कछु इक देखहिं, मुंदे पलक नहिं सोऊ। कबहूँ जाहिं होहि फिर कबहूँ, भ्रामक आंखें दोऊ; भौंदू भाई ॥६॥ अंगमकाय पाय ए प्रगरें, नहिं थावर के साथी। तू तो इन्हैं मान अपने रग, भयो भीम को हाथी भौंदू भाई. ॥ ॥ तेरे हग मुद्रित पट अंतर, भन्धरूप तू डोले। कैतो सहज खुले वे आँखें, के गुरुसंगति खोलैं; भौंदू भाई, समझ शवद यह मेरा ॥ ८ ॥ (४) राग सारंग। हम बैठे अपनी मौन सौं। दिन दशके महिमान जगतजन बोलि बिगारें कौन सौं। हम बैठे. ॥।॥ गये विलाय भरमके बादर, परमारथ-पथ-पौन, सौं। अब अंतरगति भई हमारी, परचे राधारीने सौं। हम बैठे ॥२॥ प्रगटी सुधापान की महिमा, मन नहिं लागै वौन सौं। छिन न सुहाय और रस फीके, रुचि साहिब के लौन सौं। हम बैठे० ॥३॥ रहे अपाय पाय सुख संपति, को निकसै निज भौन सौं। सहजमाव सदगुरुकी संगति, सुरस आवागौन सौं। हम बैठे ॥४॥ कविवर भैया भगवतीदासजी (५) राग प्रभाती। कहा तनिकसी आयु पे, मूरख तू नाचै । सागर थिति धर खिर गये, तू कैसे बांच । कह ॥१॥ १. स्वानुभवरूपी राधारमन । २. वमन ।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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