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कुछ चुने हुए पद । हिन्दी-संसार में सूर और मीरा के पद-भजन प्रसिद्ध हैं । जैन हिन्दी साहित्य में भी वैसे पदों का प्रभाव नहीं है।
उदाहरण-रूप कुछ पद यहां दिये जाते हैं:कविवर बनारसीदास जी:
(१) राग धनाश्री। चेतन उलटी गल चले । जड़ संगत से जड़ता व्यापी निज गुन सकल टले । चेतन० टेक १॥ हितसों विरचि ठगनिसों राचे, मोह पिसाच जले। हसि हँसि फंद सवारि आपही, मेलत आप गले । चेतन० ॥२॥ आये निकसि निगोद सिंधुसे, फिर तिह पंथ टले । कैसे परगट हेरय आग जो दवी पहार तले। चेतन० ॥३॥ भूले भवभ्रम बीचि बनारसि तुम सुरज्ञान भले । धर शुभ ध्यान ज्ञाननौका चढ़ि बैठे ते निकले । चेनन ॥ ४ ॥
(२) राग सारंग। दुविधा कप जैहै या मनकी । दु०। कब निजनाथ निरंजन सुमिरौं, तज सेवा जन जनकी । दुविधा० ॥ १ ॥ कब रुचिसों पी हगचातक, बूंद अखयपद धनको । कब शुभ ध्यान धरौं समता गहि, करूँ न ममता तनकी । दुविधा० ॥ २ ॥ कब पट अंतर रहै निरन्तर, दिक्ता सुगुरु बचनकी । कब सुख लहौं भेद परमारथ, मिटै धारना धनकी, दुविधा• ॥॥ कब पर छाँड हो? एकाकी, लिये लालसा बनकी। ऐसी दशा होय कब मेरी, हौं बलि बलि वा छनकी । दुविधा० ॥४॥
(३) राग गौरी। भौंदू भाई, समुन्म शवद यह मेरा, जो तू देखें इन भाखिनसौं तामैं कछु न तेरा । भौंदू. ॥१॥ए आँखें भ्रमहोसौं उपजी भ्रमही के रसपागी।