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________________ संक्षिप्त इतिहास] जैन स्याद्वाद सिद्धान्त व्यक्ति को अनेकान्त दृष्टि प्रदान करता है। उसे एकान्तवादी नहीं बनाता। उसका हृदय सबको प्यार करता है । अहिंसा भाव की जागृत अवस्था में वह सबका उपकार करता है-वह सबको समदृष्टि से देखता है । उसकी वृत्ति अपूर्व होती है । वह होता है। "लजावन्त दयावन्त प्रसन्न प्रतोलवन्त , परदोष को ढकैय्या पर उपकारी है। सौम्य दृष्टि गुनग्राही गरिष्ट सबको इष्ट , सिष्टपक्षी मिष्टवादी दीरघ विचारी है। विशेषज्ञ रसज्ञ कृतज्ञ तत्वज्ञ धर्मज्ञ , न दीन न अभिमानी मस्य विवहारी है। सहजै विनीत पापकिया सों अतीत ऐसो , श्रावक पुनीत इकवीस गुनधारी है।" यह है जैनी नीति जो श्रावक गृहस्थ को विनयी, वीर और परोपकारी बनाती है। इस वृत्ति में वह मतसहिष्णु बनता हैअपने पड़ोसियों से लड़ता नहीं; उनका यथाशक्ति उपकार करता है । वह मतपक्ष का भ्रम किस खूबी से मिटाता है यह देखिये"जैसे काहू देश में सलिल धार कारंज की, . नदी सों निकसि फिर नदी में समानी है। नगर में ठौर और फैली रही चहूं ओर , जाके विंग बहे सोई कहे मेरो पानी है। स्यों ही घट सदन सदन में अनादि ब्रह्म , बदन बदन में अनादिही की वाणी है। करम कलोल सों उसास की बयारि बाजे, तासों कहें मेरी धुनि ऐसो मूढ प्राणी है।"
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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