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________________ [हिन्दी जैन साहित्य का . सारे ही जग के प्राणियों में ब्रह्म घट-घटवासी है। अस्तु भगवान के भक्त हो तो प्रत्येक नरनारी का आदर करोउनका उपकार करो। सबसे प्रेम करो-सबकी सेवा करो। ( Love All & Serve All ) यह जैन साहित्यका महत्त्व है। यही नहीं कि हिन्दी जैन साहित्य मानवकी नैतिक मर्यादा और धर्म की अपेक्षा ही महत्त्वपूर्ण हो, प्रत्युत साहित्यक दृष्टि से भी उसका अपना विशेष स्थान है। सबसे बड़ा गौरव तो हिन्दी जैन साहित्य के लिये यह है कि हिन्दी की उत्पत्ति और निर्माण की जड़ उसमें मौजूद है। हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि प्रान्तीय भाषायें जिस अपभ्रंश प्राकृत साहित्य से उद्भूत हुई वह साहित्य जैनियों के साहित्य-भंडारों में ही सुलभ है । इस विषय की चर्चा हम आगे करेंगे और शास्त्रों से उद्धरण उपस्थित करके यह सिद्ध करेंगे कि हिन्दी अपने वर्तमान रूप में किन-किन अवस्थाओं में होकर पहुँची है। . हिन्दी की उत्पत्ति पर प्रकाश डालने के लिये ही जैन साहित्य महत्त्वशाली हो, केवल यह बात भी नहीं है, बल्कि उसमें प्राचीन हिन्दी का आदि काव्य रचा गया। यह एक विशेषता है, जिसे कोई हिन्दी लेखक भुला नहीं सकता। हिन्दी के प्रथम महाकवि स्वयंभू जैन ही थे। प्रो० हीरालालजी एवं प्रेमीजी ने उनके ग्रन्थों का पता विद्वजगत् को बहुत पहले दिया था। स्वयंभू ने 'हरिवंश पुराण' और 'रामायण' को देशीभाषा (पुरातन-हिन्दी) में रचकर १. "जो कुछ हो यह कहना पड़ेगा कि पुरानी हिन्दी के विकास में जैनाचार्यो' तथा बौद्धसिद्धों का बहुत कुछ हाथ था।"-प्रो. गुलाबराय (हि० सा० का सु. इतिहास. पृ. ७)
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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