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________________ २३२ [ हिन्दी जैन साहित्य का मोदक चारि भकार ठविजसु, भूपति भारहमल्ल पढिजसु । कीरति कीरति चित्त धरिजसु, कुंजरु पुंज तुरंग मल्लिजसु ॥ ७६ ॥ देवमहीधर सूर सिरोमणि, घोरुकठोह दरिद्र तमो हणि । बंद विहंगम नैन मुदाकर, भूपति भारहमल्ल दिवाकर ॥ ७७ ॥ दोधक बंधु विशेसुण गणा, तिणि भकार पयंतह कणा। भारहमल्ल पढंतर घणा, भान नवण असंसण गणा ॥ ७० ॥ तुरंग सुधामय धाम अचंभा, भामिनि वाम विचक्षण रंभा। सिंधुर सुंदर दान सनेहा, भारहमल्ल पुरंदर जेहा ॥ ७९ ।। छंदु विलासिणि भूप र वणा, सोलह मत्त पयंतह कणा । चउकल चारि गराउ गणिजइ, भूपति भारहमल्ल भणिजइ ॥ ८० ॥ दरबार मतंगज गजंता, निशिवासर दुंदुहि बजंता । जय जोह तुरंगम सज्जंता,'................. ................... ॥८१॥ ..........."भारहमल्ल सुधाम । धरावधि कीरति मंगल गाण, पुरंदर सुंदर भोग समाण ॥ ८२ ॥ घण घण घोर मनौ मुष नद्द, णिरंतर कंचण वारि विहद्द। किए जण चातक वृंद णिहाल, धराधिप भारहमल्ल कृपाल ॥ ८३ ॥ पिकवाणि इय छंदु भणिजइ, सेस धनुहरं कब व विजइ । सव्व पर्यत ह देह धरिजइ, भूपति भारहमल्लु पढिजइ ॥ ८४ ॥ स्वाति बुंद सुरवर्ष निरंतर, संपुट सीपि धमो उदरंतर । जम्मो मुकताहल भारहमल, कंठाभरण सिरी अवलीवल ॥ ८५॥ इय त्रोटक चारि गणा सगणा, भण भारहमल्ल प्रताप घणा। रिपु कानण दाह दवग्गि जहां, जग जाणि जगम्मग ज्योति महा ॥८६॥ जगती जन पादप पाद तटी, कविवृंद विहंगम आरभटी। घरटा बज मंजु मुदा प्रमदा, कुमुदाकर भारहमलु सदा ॥ ८७ ॥ इय पद्धदि छंदु भर्णत जाउ, चउकल गण चारि पयंत राउ। जह वीय जगणु णवि,कोवि दोस, भणि भारहमल्ल कीरति अदोस ॥ ८८॥ १०८१ के तीसरे चरण के भागे के दो चरण लिपिकर्ता से मूल प्रति में छूट गए हैं।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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