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सवित इतिहास]
१२७ (५) “सर्व जगत की सामग्री चैतन्य सुभाव विना नरस्य सुभाव में धरे फीकी जैसे लून बिना अलौनी रोटी फीकी । तीसो ऐसो ग्यानी पुरुष कौन है सो ज्ञानामृत नै छोद उपाधीक आकुलता सहित दुषने भाचरै ? कदाचित न आचरै।"
-ज्ञानानंद पूरित श्रावकाचार (१८५८)। (६) "जैसे जोग का उपादान जोग है वा धतुरा का उपादान धतुरा है आम्र का उपादान आम्र है अर्थात् धतुरा के आम नहीं लागे भर आम्रके धतुरा नाही लागै तैसैहीं आत्मा के आत्मा की प्राप्ती संभव है। प्रश्न-प्राप्त की प्राप्ती कोण दृष्टांत करि संभवै सो कहो। उत्तरजैसे कंठ मैं मोती की माल प्राप्त है अर भरमसै भूलिकरि कह के मेरी मोती की माल गुम गई-मेरी मोकू प्राप्ती कैसे होवै।"
-श्रीधर्मदासकृत इष्टोपदेश टीका। (७) “प्रथमानुयोग विषे जे मूल कथा है ते तो जैसी है तैसी ही निरूपित हैं। अर तिन विष प्रसंग पाय व्याख्यान हो है। सो कोइ तौ जैसाका तैसा हो है । कोई ग्रन्थ कर्ता का विचारकै अनुसार होय परन्तु प्रयोजन अन्यथा न हो है।"
-श्रीटोडरमलजीकृत 'मोक्षमार्गप्रकाशक' (पृ० ४०२)। (८) “जीव कर्म रहित होय तव ती ऊगमन स्वभाव है, सो ऊर्व ही जाय। अर कर्मसहित संसारी है सो विदिशा . वर्जिकरि चारि दिशा अर अधः ऊई जहाँ उपजना होव तहाँ जाय है।"
-श्रीजयचन्द्रजी (सं० १८५०) गद्य साहित्य के उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि इस परिवर्तन काल में गद्य भाषा साहित्य में भी विशेष उन्नति हुई थी। उपर्युक्त गद्य सुसंस्कृत और मुहावरेदार बनाने की प्रगति हुई थी। उद्धरणों में निम्नलिखित रेखाकृित वाक्यों का प्रयोग यह सिद्ध करता है कि भाषा का झुकाव खड़ी बोली की ओर होता जा