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________________ २२६ [हिन्दी जैन साहित्य का "श्री सरवग्य सुदेव को, मन वच सीस नवाइ । कहूँ कछु संक्षेप सौ परमत खोज बनाइ ॥१॥ संवत अठारा सै धरै, मिल्या सुजोग समास है। परख परमत कछु सजन्म न धरो सिर सुखरास है ॥" इस परिवर्तन-काल में गद्य साहित्यका विकास खूब हुआ। अधिक अधिक संख्या में गद्य रचनाएँ रची गई । भाषा की अपेक्षा वे उत्तरोत्तर परिष्कृत और सुन्दर मुहावरेदार होती गई। वैसे मध्यमकाल से ही उच्च कोटि का गद्य सिरजा जाने लगा था; परंतु गद्य की जो उन्नति इस काल में हुई, वह अपूर्व थी। सत्रहवीं शताब्दि से अब तक के कुछ उदाहरण देखिये (१) “सम्यग्दृष्टी कहा सो सुनो-संशय विमोह विभ्रम ए तीन भाव जामैं ना हो सो सम्यग्दृष्टी । संशय विमोह विभ्रम कहा ताको स्वरूप दृष्टान्त करि दिखायतु है सो सुनो।' -कविवर बनारसीदासजी । (२) "मूलकर्म आठ तेहनी उत्तर प्रकृति एक सो अठ्ठावन जाणिवीं हवे आठ कर्म नाम कहीइ छह । पहिलु ज्ञानावरणी कर्म ॥ १ ॥ बीजउ दरसनावरणी कर्म २॥" -मुनि वैराग्य सागर कृत आठकर्मनी १०८ प्रकृति (१७१९)। (१) "सूर्य के प्रकाश विना अंध पुरुष संकीर्ण मार्ग विर्षे पार्ड में परै । भर सूर्य के उदय करि प्रगट भया मार्ग विस्तीर्ण ता विर्षे दिव्य नेत्रनिका धारक काहे को पाडे में परै ॥" -जगदीश कृत हितोपदेश भाषा वचनिका । (.) "परमात्म राजा ई प्यारी सुषदैनी परम राणी तींद्रिय विकास करणीं । अपनी बानि भाप राजा हूँ यासों दुराव न करैन" -परमात्मा पुराण, दीपचंदकृत ।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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