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[हिन्दी जैन साहित्य का "श्री सरवग्य सुदेव को, मन वच सीस नवाइ । कहूँ कछु संक्षेप सौ परमत खोज बनाइ ॥१॥
संवत अठारा सै धरै, मिल्या सुजोग समास है।
परख परमत कछु सजन्म न धरो सिर सुखरास है ॥" इस परिवर्तन-काल में गद्य साहित्यका विकास खूब हुआ। अधिक अधिक संख्या में गद्य रचनाएँ रची गई । भाषा की अपेक्षा वे उत्तरोत्तर परिष्कृत और सुन्दर मुहावरेदार होती गई। वैसे मध्यमकाल से ही उच्च कोटि का गद्य सिरजा जाने लगा था; परंतु गद्य की जो उन्नति इस काल में हुई, वह अपूर्व थी। सत्रहवीं शताब्दि से अब तक के कुछ उदाहरण देखिये
(१) “सम्यग्दृष्टी कहा सो सुनो-संशय विमोह विभ्रम ए तीन भाव जामैं ना हो सो सम्यग्दृष्टी । संशय विमोह विभ्रम कहा ताको स्वरूप दृष्टान्त करि दिखायतु है सो सुनो।'
-कविवर बनारसीदासजी । (२) "मूलकर्म आठ तेहनी उत्तर प्रकृति एक सो अठ्ठावन जाणिवीं हवे आठ कर्म नाम कहीइ छह । पहिलु ज्ञानावरणी कर्म ॥ १ ॥ बीजउ दरसनावरणी कर्म २॥"
-मुनि वैराग्य सागर कृत आठकर्मनी १०८ प्रकृति (१७१९)। (१) "सूर्य के प्रकाश विना अंध पुरुष संकीर्ण मार्ग विर्षे पार्ड में परै । भर सूर्य के उदय करि प्रगट भया मार्ग विस्तीर्ण ता विर्षे दिव्य नेत्रनिका धारक काहे को पाडे में परै ॥"
-जगदीश कृत हितोपदेश भाषा वचनिका । (.) "परमात्म राजा ई प्यारी सुषदैनी परम राणी तींद्रिय विकास करणीं । अपनी बानि भाप राजा हूँ यासों दुराव न करैन"
-परमात्मा पुराण, दीपचंदकृत ।