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संक्षिप्त इतिहास]
२२५ बुन्देलखंड के कवियों में अत्यन्त श्रेष्ठ कवि थे। 'वर्धमान पुराण' में महाकाव्य के समस्त लक्षण पाये जाते हैं, इसलिये यह हिन्दी का एक स्वतन्त्र महाकाव्य कहा जा सकता है।' गतवर्ष यह प्रकाशित होकर 'जैन मित्र' के उपहार में बांटा गया है। कविता के उदाहरण देखिये"जुरी दोउ सैना करै युद्ध ऐना, लरै सुभटसो सुभट रसमें प्रचारै । लरे व्याल सों व्याल रथवान रथ सौं, तहाँ कुंतसौं कुंत किरपान सारै ॥ जुरै जोर जोधा मुरै नैक नाही, टरै आपने राय की पैज सारें। करें मार घमसान हलकंप होती, फिरै दोयमें एक नहीं कोई हारै ॥१२॥
ज्यों बरपा ऋतु पाय नार सरिता बहै। स्या रण सिंधु समान रकन लहरै च ॥ कायर बहि बहि जांय सूर पहिरत फिरें। टूट टूट रथ कवच आय धरनी गिरें ॥ १२५ ॥
धीर जिन जन चरन पूजत, वीर जिन भाश्रय रहे। वीर नेह विचार शिव सुख, वीर धीरज को गह॥ वोर इन्द्रिय अघ घनेरे, वीर विजयी ही सही। वीर प्रभु मुझ वसहु चित नित, वीर कर्म नभावही ॥२२६॥"
श्रीबख्शीरामजी कृत 'ढूंढियामतखंडन' (सं० १८२६) की एक प्रति श्रीअमरग्रन्थालय इन्दौर में है। उसका अवलोकन करके श्री पं० नाथूलालजी ने आदि अन्तके छंद इस प्रकार लिस भेजने की कृपा की है
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