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[हिन्दी जैन साहित्य का
पिण भंगुर संसार असार, विनसत घटी न लागै वार । रामा सुत जोवन भोग, देषत देषत होत वियोग ॥२७॥ जिम एवट तिम सगला लोक, मरण समै जब थावै फोक । राजा मनचिंते वैराग, वृद्ध पणी संयम नो लाग ॥२८॥
सब निजघरें सुषभर रहैं, धर्मभार सब निज सिर सहै । नेमनाथ जिन परम दयाल, केवल ग्यान लघु गुनमाल ॥८॥ तमु पद बन्दन करवा काज, गिरनार चाल्यौ हरि राज । रुकमणर्ने देपाई भूप, ऊर्जयंत गिर तणौ सरूप ॥९॥ समवसरण संजुक्त जिनन्द, हरपे देषत कृष्ण नरेन्द्र । केवल लोचन मंगल पूर, अष्टादश दोर्षे ते दूर ॥१०॥"
पण्डित छजमलजी का रचा हुआ 'मुक्तावली रास' मिला है। रचना साधारण है
"पण्डित छजमल रासि कियो मुक्तावलि केरो । भाव सहित नव वरस करै तसु मुकति वसेरो ॥१९॥ पदै पढ़ावै भाव सहित तिस घर जयकारो।
मन वंछित फल पाय जगत जस होय अपारो ॥२०॥" कुँवर धर्मार्थी ने 'बन्धत्रिभंगी वचनिका' स. १८०६ में लिखी थी।
कवि नवलशाह खटोलाग्राम के निवासी थे। उनके पिता देवराय गोलापूर्व जैनी थे। उनके पूर्वज भेलसी नामक ग्राम में रहते थे। जिनमें संबई भीषमशाह ने जिन मंदिर बनवा कर गजरथ चलवाया था। सं० १८२५ में कवि जी ने भ० सकलकीर्ति के संस्कृत ग्रन्थ से कथा लेकर के 'वर्द्धमानपुराण, छन्दोबद्ध की रचना की थी। पं० पन्नालालजी ने लिखा है कि 'यह कवि'