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________________ [हिंदी बैन साहिल का ....... कविजन जहाँ अनेक । तिनमें साधर्मी जु ऋषि, विजैनाथ कवि येक ॥ २९ ॥ बासी टोडे नगर कौ, माथुर जाति प्रवीन । पुन्य उदै तासौ तहाँ, यहै हुकम जौ कीन ॥ ३० ॥ भाषा रच्यो बनाय, वर्द्धमान पुरान की ॥" रंगविजय जी तपागच्छ के विजयानंदसूरि समुदाय के यति थे। उनके गुरु अमृतविजय कवि थे। उन्होंने बहुत से आध्यात्मिक और विनती के पद रचे हैं। रचना सरल और सरस है। 'वैष्णव कवियों ने जैसे राधा और कृष्ण को लक्ष्य करके भक्ति और शृंगार की रचना की है वैसे ही इन्होंने भी राजीमती और नेमिनाथ के विषय में बहुत से शृंगार भाव के पद लिखे हैं।' नमूना एक पद में देखिये "आवन देरी या होरी। चंदमुखी राजुल सौं जंपत, ल्याउं मनाय पकर बरजोरी । फागुन के दिन दूर नहीं अब, कहा सोचत तू जिय मैं भोरी ॥ बाँह पकर राहा जो कहावू, छाँ हूँ ना मुख माँ हूँ रोरी। सज सनगार सकल जदु वनिता, अबीर गुलाल लेइ भरझोरी ॥ नेमीसर संग खेलौं खिलौना, चंग मृदंग डफ ताल टकोरी। हैं प्रभु समुदविजै के छौना, तू है उग्रसेन की छोरी । 'रंग' बहै अमृत पद दायक, चिरजीवहु या जुग जुग जोरी ॥" सं० १८४९ में इन्होंने खड़ी बोली के ढंग की भाषा में एक गजल बनाई जिसमें अहमदाबाद नगर का वर्णन है। कर्पूरविजय या चिदानन्द जी संवेगी साधु थे, पर रहते थे सदा अपने ही मत में मस्त । वे पूरे योगी थे। उन्होंने अपना * हिजै० सा० इ०, पृ. ७८-७६ | -
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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