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[हिन्दी मैन साहित्य का संस्कृतज्ञ विद्वान थे । कवि को संस्कृत ग्रन्थों का अर्थ बता कर वह उनकी साहित्य प्रगति में सहायता करते रहते थे । कवि कमलनयनजी अध्यात्मरस के रसिक थे, यह बात उनके निम्न पद्य से स्पष्ट है"जिन आतमघट फूलो बसन्त । मुनि करत केलि सुख को न अन्त ॥टेक। शुद्ध भूमि दरशन सुभाय, जहां ज्ञान-अंग-तरु रहे छाय ॥जिन०॥
जहाँ रीति-प्रीति संग सुमति नारि ।
शिवरमणि मिलन को कियो विचार ॥ जिन ॥ जिन चरण कमल चित वसो मोर ।
कहें 'कमलनयन' रति-साँझ भोर ॥ जिन० ॥" सं० १८६३ में कमलनयनजी ने 'अढ़ाई द्वीप का पाठ' रचकर साहित्य रचना का श्रीगणेश किया प्रतीत होता है । सं० १८७१ में कवि ने मैनपुरी में 'जिनदत्तचरित्र' का पद्यानुवाद रचा था। सं० १८७३ में कवि कारणवश प्रयाग पहुँच गये थे। वहाँ अपने मित्र श्री लालजीत की इच्छानुसार उन्होंने 'सहस्रनामपाठ' की रचना की थी। सं० १८५४ में उन्होंने 'पंचकल्याणक पाठ' रचा था और सं० १८७७ में उन्होंने 'वराङ्ग चरित्र' रचा था, जो 'श्री शिवचरनलाल जैन ग्रन्थमाला' में छप चुका है। कवि की रचनाएँ सरल, सर्वबोध और लोकोपकारी हैं। इसीलिये हम उन्हें सफल कवि कह सकते हैं। कुछ उदाहरण देखिये. "पावस में गाजें धन दामिनी दमंके जहाँ
सुर चाप गगन सुबीच देखियतु है।