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संचित - इतिहास ]
भक्तिरस की पराकाष्ठा इस छोटे-से छंद में निहारिये -
निहारो ॥
" भलो वा बुरो जो कछू हों तिहारो । जगन्नाथ दे साथ मो पै विना साथ तेरे न एकौ नमो जय हमें दीजिये
पाद
बनेवा ।
सेवा ॥"
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भ० महावीर की जयमाला - स्तुति में कवि ने भक्तिरस के साथ वीररस को भी किस सुंदरता से दर्शाया है, यह भी देखिये
"जय सार्थक नाम सुवीर नमो, जय धर्मधुरंधर वीर नमो । जय ध्यान महान तुरी चढ़के, शिव खेत लियो अति ही वढ़ के ॥ जय देव महा कृत कृत्य नमो, जय जीव उधारन व्रत्य नमो । जय अस्त्र विना सब लोक जई, ममता तुम तें प्रभू दूर गई ॥ ११ ॥ '
सचमुच कवि मनरंग की कविता प्रसादगुण युक्त है ।
कवि कमलनयनजी मैनपुरी के निवासी थे। वह लेखक के सगोत्रीय यदुवंशी बुढ़ेलवाल दि० जैनी श्रावक थे । उनके पिता हरिचंद जी उस समय एक अच्छे वैद्य थें। उनकी घनिष्ठता उस समय के अग्रगण्य जैनी साहु नंदरामजी के 'रुहिया' वंश से थी । सं० १८६७ में साहु नंदराम जी के सुपुत्र साहु धनसिंह जी ने सम्मेद शिखरादि तीर्थों का सङ्घ निकाला था। उस सङ्घ में कवि कमलनयन भी साथ थे । उन्होंने उस यात्रा का आंखों देखा सजीव वर्णन इस खूबी से लिखा है कि उससे कवि की वर्णनशैली की विशेषता का परिचय होता है। धनसिंहजी के ज्येष्ठ भ्राता साहु श्यामलाल जी कवि कमलनयन के सहपाठी और