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[हिन्दी जैन साहित्य का रिध होत सिध होत और हू समृद्धि होत,
करणा की वृद्धि होत रहे नाहिं सोक में । कहे मनरंग सांच जात के करैयन को,
एती बात होत सबे फलक की नोक में ॥" वृन्दावन चौबीसी पाठ के साथ ही मनरंग चौबीसी पाठ का खूब प्रचार है। दोनों ही कई बार छप चुके हैं। भावसौष्ठव जो मनरंग के पाठ में है वह शब्दालंकार की छटा में वृन्द के पाठ में छिप गया है । नमूने के दो चार छन्द पढ़िये
"युवा वय भई काम की चाह बाढ़ी। वियोगी भये सोग की रीति काढी ॥ न देखें तुम्हें हाँ भले चित्त से री। प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी ॥ जरा रोग ने घेर के मोहि कीन्हो, महाराज रोगी भलो दाव लीन्हो ॥ झड्या ज्यों पको पान कालानि ले री।
प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी ॥" अपने दुःखों को मिटा कर दीनता मेटनी की कैसी सुंदर प्रार्थना है । 'दाव लीन्हो।' और 'पको पान. काल आनि ले री' का प्रयोग कैसा सुन्दर और फबता हुआ है । इस छंद में देखिये कवि किस खूबी से प्रभुभक्ति का प्रसाद उस शक्ति की प्राप्ति बतलाता है, जिससे काल को जीता जा सकता है
"जगत काल को है चबैना बनाई। . . कछू गोद लीन्हो कछू ले चबाई ॥ गहे पाद मैं जानि रक्षा की टेवा । नमो जय हमें दीजिये पाद सेवा ॥"