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________________ २१० [हिन्दी जैन साहित्य का वह भूले हुए थे और आदर्श पूजा को पाषाणपूजा समझते थे। इस भूल से जागृत वर्गको बचाने के लिये ही दीवान चम्पारामजी ने इस ग्रंथ की रचना की थी। उनको जिनप्रतिमा में कितना दृढ़ विश्वास था, यह उनके निम्नलिखित पद्य से स्पष्ट है "महिमा श्री जिन चैत्य की श्री जिनतें अधिकाइ। चम्पाराम दिवान कू सतगुर दई दिखाइ॥३॥ सो भाषा में कहत हौ, मनमें ठानि विवेक । ज्ञानी समझे ज्ञान तें समनय देषि अनेक ॥ ॥" श्री जिनसे जिन चैत्य का महत्त्व क्यों अधिक है ? इसका समाधान दीवानजी निम्नलिखित छन्द में करते हैं "श्री जिन करै विहार निति, भव जल तारण हेत । पीके भविक जनन कुं विरह महा दुष देत ॥१६॥ श्री जिन बिम्ब प्रभाव जुत, बसें जिनालय नित्त । विरह रहित सेवक सदा, सेवा करें सुचित्त ॥१७॥ बिन बोले पोलै हिए श्री जिनेन्द्र को ध्यान । करै पुष्टता धर्मकी सोधै सम्यक् ज्ञान ॥२१॥ बिन अकार तें ध्यान किमि, करै भव्य मन लाइ । सिद्धन हूँ ते अधिकता बिंब सु देत विषाइ ॥२३॥" इस प्रकार की युक्तियों द्वारा इस ग्रन्थ में मूर्ति पूजा की सार्थकता स्पष्ट की गई है। इसे उन्होंने आसकरन साधु के हितभाव से संवत् १८८२ में रचा था। भवन की यह पोथी स्वयं
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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