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संक्षिप्त इतिहास]
"कुंदलिता देखि तौ मनोज प्रभूत महा , सब जग वासी जीव जे रंक करि राखै हैं। जाके बस भई भूप नारी रति जेम कांति , कुबरे प्रमान संग भोग अभिलाषे हैं। बोली सुन बैन तबै दूसरी स्वभाव सेती , काम बान ही तें काम ऐसे वाक्य भाषे हैं। नैन तीर नाहिं होइ तौ कहा करै सु जोई ,
मति पाय जीव नाना दुख चाखै हैं ॥" इसकी एक प्रति जैन सिद्धांत भवन आरा में है। किंतु इसमें १०७ पन्ना तक ही है । अन्तिम पन्ना नहीं है। इससे रचना का स्पष्ट संवत् अज्ञात है।
दीवान चम्पारामजी जयपुर के राज्याधिकारी अमात्य थे। उनका रचा हुआ 'जैनचैत्यस्तव ग्रन्थ' हमें जैन-सिद्धान्तभवन आरा से देखने को मिला है । यह एक छोटी-सी रचना है, परन्तु है विशेष महत्त्वपूर्ण। पहले इसके नाम से ऐसा आभास होता है कि इसमें विविध जिन चैत्यों का स्तवन और वर्णन होगा; परन्तु यह बात नहीं है । यह एक धर्मोपदेशी ग्रन्थ है और इससे उस समय की धार्मिक स्थिति का पता चलता है । सत्रहवीं शताब्दि में जिस प्रकार मुनि ब्रह्मगुलाल ने अपनी 'कृपणकथा' में मूर्ति पूजा की पुष्टि की थी, उसी तरह इस ग्रंथ में भी मूर्तिपूजा का पोषण किया गया है। अन्तर केवल इतना है कि इस ग्रन्थ में तात्त्विक रूप में इष्ट विषय का निरूपण किया गया है किसी कथा का सहारा नहीं लिया गया है। इससे स्पष्ट है कि इस समय जनता में मूर्तिपूजा पर ऊहापोहात्मक विचार-विमर्श का भाव जागृत हो गया था-जागृत हृदय पाषाण-पूजा से विचक रहे थे; परन्तु