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संक्षिप्त इतिहास]
ब्रह्म उदधिको सिष्य फुनि पाण्डे लाल अयान ।
तब भाषा रचना विष कीनौं हम उपयोग । पै सहाय विन होय नहीं तबहि मिल्यौ इक जोग ॥१५॥ नन्दन सोभाचन्द कौं नथमल अति गुनवान । गोत विलाला गगन मैं उद्यौ चन्द समान ॥९॥ नगर आगरौ तज रहै, हीरापुर मैं आय ।
करत देषि इस ग्रन्थकौं कीनौं अधिक सहाय ॥९७॥" इसकी रचनाप्रसङ्ग का यह कथन है। अब देखिये कवि ती रचनाशैली । स्त्रियों के चित्रण में कवि लिखता है"रूप की निधान गुनि पानि वर नारी जहाँ,
चंचल कुरंग सम लोचन वरति हैं। उन्नत कठोर कुच जुग पैं उमंग भरी,
सुन्दर जवाहरको हार पहरति हैं। लाज के समाज पची विधने सवारि रची,
सील भार लियें ऐसे सोभा सरसति हैं। तारा ग्रह नषत की माला वेस धरै मानौं,
मेरु गिरि सिषिर की हाँसी जे करति है ॥२६॥" कितना सौम्य संयमविहित चित्रण है। मुनिराज का वर्णन भी पढ़ लीजिये
"श्री मुनिवर जिहिं देस विषै अति सोभा धारत । तप कर छीन शरीर शुद्ध निजरूप विचारत । भव भव मैं 'अघ भार किये जे संचय जग मैं। देषत ही ते दूरि करत भविजन के छन मैं ॥२४॥"