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संक्षिप्त इतिहास]
२०१ बहुत विनय धरि हाथ जोरि करि मधुर स्वर गावं गारी ॥ प्रभु.॥
काहे को सार शृङ्गार करे, सुनि तेरो पिया गिरिनार गयो री। मूर्छित है धरनी पै गिरी, मनु वज्र छटाका आनि पोरी ॥ सुधि बुधि बिसरि गई सु भई मनु तनते चेतन दूर भयो री । सीतल पवन सचेत कियो, 'मो पी कहाँ' यह नाम लियो री ॥"
उपर्युक्त अतिसुखरायजी के कहने से कवि मुनकलाल ने स० १८४४ में 'भ० पार्श्वनाथजी के कवित्त' रचे थे, जिसकी एक प्रति श्री पंचायती मंदिर दिल्ली में है। उदाहरण देखिए
"नगर बनारस जहाँ बिराजै, बहै सुगंगा गहर गंभीर । उज्जल जल करि शोभा मंडित परे निवारे किस्ती वीर ॥ कंचन रत्न जरित अति उन्नत स्वेत बरन पुल लसै सुधीर । बन उपबन करि शोभा सोभित अरु विसराम सुता के तीर ।
रूप के रंग मानौ गंग की तरंग सम इन्द दुति अंग ऐसे जल सुहात है। ससिकी सी किर्णि किधौं मेह तट शरनि किधौं अंबरकीभनि किधों मेघ बरषात है हीरा सम सेत रवि छबि हरि लेत किधौं मुक्ता दुति देषि मन सरसात है। सिव तिय अपने पति को सिंगार देषि करतु कटाछु ऐसे चमर फररात है।
मित्र सुअति सुषनै कही, सुनियै झुनकतुलाल । श्री जिन पारसनाथ की, वरन करो गुणमाल ॥ मोक्ष हेतके कारने, कियो पाठ सुविचार ।
जे भवि जन सरधा करै, ते सिवपुर के पार ॥२६॥" कहीं कहीं पर रचना बड़ी ही मनोहारी है।