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संक्षिप्त इतिहास]
चैनविजय या चन्द्रविजय के कुछ पद हमारे संग्रह के एक गुटका (सं० १८००) में हैं। उदाहरण
"कथा समझाई, वनिता बन आई ॥ टेक ॥ कहत मन्दोदरि सुन पिय रावण, कुमति कहाँ तै भाई। मति के हीन बुद्धि के ओछे, त्रिया हरत पराई ॥ १ ॥
समझायो समझे नहिं प्राणी, अशुभ उदै जौ भाई ।
चैन विजय और भाई भभीषण, धर्मसू प्रीत लगाई ॥ ३ ॥" जिनदास-उक्त गुटका में इनका रचा हुआ 'सुगुरुशतक है
"ममूं साधु निर्ग्रन्थ गुरु, परम धरम हित दैन । सुगति करन भवि जनन·, आनन्द रूप सुवैन ।। - X
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X पितामह, पिता ते हमैं, तजी 'कुलिंगनी प्रीति ॥ गोछा जाको गोत है, श्रावग कुल है जास । अध्यातम शैली विषै, नाम है जिनदास ॥ भठारा सै बावनै चैतमास तमलीन । सोमवार आटै तहाँ, शतमें संपूरण कीन ॥" यह जयपुर के रहने वाले थे।
हरिचन्दजी की कतिपय रचनाएँ हमारे पास स० १९३४ के गुटका में लिखी हुई हैं। 'पंचकल्याणक प्राकृत छन्द' की भाषा हिन्दी के निकट है, यह देखिये
"शक्क चक्क मणि मुकट वसु, चुंबित चरण जिणेस । गम्भादिक-कलाण पुण, वण्णउ भत्ति-विशेष ॥॥