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________________ ६६ [हिन्दी जैन साहित्य का श्री माणिक्यचंद्रजी के मतानुसार 'इनकी तुलना वृन्द, रहीम, तुलसीदास और कबीर के दोहों से पूर्णतया की जा सकती है।' उपदेशाधिकार में भी कवि के उद्गार अन्य कवियों से मिलते. जुलते हैं। देखिये "दुर्जन सजन होत नहिं राखौ तीरथ बास । मेलो क्यों न कपूर मैं हींग न होय सुवास ॥"-बुधजन "नीच निचाई नहिं तजै, जो पावै सत्संग । तुलसी चन्दन विटप बसि विष नहीं तजत भुजंग ॥"-तुलसी "करि संचित को रो रहै, मूरख विलसि न खाय । माखी कर मंडित रहै, शहद भील लै जाय ।"-बुधजन "खाय न खरचै सूम धन, चोर सबै ले जाय । पीछे ज्यों मधु मक्षिका, हाथ मलै पछताय ॥"-वृन्द विराग भावना के वर्णन में कवि ने कमाल किया है। दो दोहे देखिये "को है सुत को है तिया, काको धन परिवार । आके मिले सराय में, विछुरेंगे निरधार ॥ परी रहेगी संपदा, धरी रहेगी काय । छलबलि करि काहु न बचे, काल झपट लै जाय ॥ देहधारी बचता नहीं, सोच न करिए भ्रात । तन तौ तजि गे रामसे, रावन की कहा बात ॥ भाया सो नाहीं रहा, दशरथ लछमन राम । तू कैसे रह जायगा, झूठ पाप का धाम ॥" यद्यपि यह सतसई प्रकाशित हो चुकी है, परंतु प्रचार में कम भाई है।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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