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संक्षिप्त इतिहास]
१६. बुधजन का पूरा नाम विरधीचन्दजी था। वह जयपुर के रहनेवाले खंडेलवाल जैनी थे। उनके रचे हुए चार पद्यप्रन्य उप. लब्ध हैं। (१) तत्त्वार्थबोध, ( १८७१), (२) बुधजनसतसई, (१८८१), (३) पंचास्तिकाय ( १८९१ ) और (४) बुधजन विलास (१८९२) इनकी कविता में मारवाड़ीपन है। परंतु 'बुधजनसतसई' की रचना और भाषा अच्छी है। श्री माणिक्यचंद्रजी, बी० ए० ने इसके विषय में लिखा है कि "इस सतसई में चार प्रकरण हैं (१) देवानुरागशतक, (२) सुभाषित नीति, (३) उपदेशाधिकार और (४) विरागभावना । देवानुरागशतक में कवि बुधजनजी महात्मा सूर और तुलसी के रूप में दिखलाई दिए । यह बात बुधजनजी के दोहों में स्पष्ट है
"मेरे अवगुन जिन गिनौ, मैं औगुन को धाम । पतित उद्धारक भाप हो, करौ पतित को काम ॥"-बुधजन "प्रभु मेरे अवगुन चित्त न धरो। समदर्शी है नाम तिहारो चाहो तो पार करो ॥"-सूरदास "राम सों बड़ो है कौन, मो सौं कौन छोटों ॥
राम सों खरो है कौन, मो सों कौन खोटो ॥"-सुलती सुभाषितनीति पर कवि ने २०० दोहे लिखे हैं। इनसे कविके अपूर्व अनुभव और ज्ञान का पता लगता है। उदाहरण देखिबे
"पर उपदेश करन निपुन ते तो लखे अनेक । करै समिक बोलै समिक जे हजार में एक ॥ . दुष्ट मिलत ही साधुजन, नहीं दुष्ट है जाय ।
चन्दन तरु को सर्प लगि विष नहिं देत बनाय ॥" 9 भनेकान्त, वर्ष ६ पृ. १३८-१४० ।