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________________ संक्षिप्त इतिहास] धर्मदासजी कृत 'इष्टोपदेश टीका'की जैन सिद्धान्त भवनधारा में अधूरी प्रति है । मंगला चरण से उनका नाम स्पष्ट है "पूज्यपाद मुनिराज जी, रज्यो पाठ सुषदाय । धर्मदास वंदन करै, अन्तर घटमें जाय ॥" अखयराजजी की रची हुई 'विषापहार स्तोत्र टीका' उक्त भवन में है । लेखक ने केवल अपना नाम ही ध्वनित किया है "स्तोत्र जु विषापहार, भूल चूक कछु वाक्य ही। ज्ञाता लेहु सँवार, अषैराज अरजैत इम ॥" विहारीलालजी कृत 'यशोधर चरित्र' उक्त भवन में है। कविता साधारण है । कवि ने केवल अपना नाम अन्त में लिखा है "राय जसोधर चरित यह, पूरन भयो विसाल। हिरदे हरष बहु धारिके, लिषी बिहारीलाल ॥" ज्ञानानन्द श्रावकाचार की एक प्रति आरा के उक्त भवन में सं० १८५८ की लिपि की हुई है। यह गृहस्थाचार की एक स्वतन्त्र रचना है और उस समय की सामाजिक स्थिति की परिचायक है। रचयिता का नाम नहीं दिया है । यह छप भी चुका है। चेतनकवि ने सं० १८५३ में 'अध्यात्मबारहखड़ी' नामक रचना रची थी, जिसकी एक प्रति 'जैन सिद्धान्तभवन' आरा में है। कविता अच्छी और उपदेशपूर्ण है। उदाहरण देखिये "गरब न कीजै प्राणियां, तन धन जोबन पाय । आखिर ए थिर ना रहै, थित पूरे सब जाय ॥२५॥ गावै रहियै धरम मैं, करम न आवै कोय । अनहोनी होनी नहीं. होनी .INDIALI
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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