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संक्षिप्त इतिहास ]
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कविवर का रचा हुआ मुख्य ग्रन्थ 'प्रवचनसार टीका है। यह प्राकृत ग्रन्थ का पद्यानुवाद है । इसे सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिये उन्होंने तीन बार परिश्रम किया था । यथा
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"तब छन्द रची पूरन करी, चित न रुची तब पुनि रवी । सोऊन रुची तब अब रची, अनेकान्त रस सौं मची ॥”
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दूसरा ग्रन्थ 'चतुर्विंशति जिन पूजा पाठ और तीसरा 'तीस चौबिसी पूजापाठ' है । चौबीस पूजापाठ का प्रचार अत्यधिक है । वह कई बार प्रकाशित हो चुका है। उसमें २४ तोर्थङ्करों की पूजायें हैं । शब्दालङ्कार अनुप्रास, यमक आदि की इनमें भरमार है; पर भाव की ओर उतना ध्यान नहीं दिया गया, जितना शब्दों की ओर दिया गया है । तीसरा ग्रन्थ 'छन्द शतक' है, जो अत्यन्त सुन्दर रचना है । विद्यार्थियों के लिये इससे अच्छा और सरल छन्दशास्त्र शायद ही दूसरा होगा। प्रेमीजी ने तो लिखा है कि 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' की प्रथमा परीक्षा में यह पाठ्य पुस्तक बनने के योग्य है ।' संस्कृत के वृत्तरत्नाकर आदि ग्रन्थों की नाई प्रत्येक छन्द के लक्षण और नाम आदि उसी छन्द में दिये हैं और प्रत्येक छन्द में अच्छी-अच्छी निर्दोष शिक्षाये भरा हुई है।
एक उदाहरण
"चतुर नगन मुनि दरसत, भगत उमग डर सरसत ।
नुति थुति करि मन हरसत,
तरल नयन जल बरसत ॥ "
इसे कविवर ने सं० १८९८ में केवल १५ दिन में रचा था । श्री जमनालालजी विशारद वर्धा इसको प्रकाशित करने वाले हैं । वैसे 'वृन्दावन विलास' में एक बार यह छप चुका है ।
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