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________________ १६२ [हिन्दी जैन साहित्य का वृन्दावनजी की ससुराल भी काशी में थी। उस समय प्रजा की निजी टकसालें थीं, जिनमें सिक्के ढाले जाते थे । कविवर की ससुराल में भी एक टकसाल थी। एक दिन जब वह वहाँ थे, तब एक किरानी अंग्रेज टकसाल देखने आया, परन्तु कविवर ने उसे टकसाल नहीं दिखाई । अंग्रेज लौट गया। वृन्दावनजी सरकारी खजाँची हो गये। वही अंग्रेज वहाँ कलक्टर होकर आया। आते ही उसने कविवर को पहचान लिया। वह दण्ड देने को तुल पड़ा । हठात् उसने कविवर को तीन मास का कारावास बोल दिया। कारावास में कविवर ने 'हो दीनबन्धु श्रीपति करुणानिधानजी' शीर्षक वाली कविता रची। एक रोज कलक्टर ने भी उन्हें यह कविता पढ़ते और आँसू बहाते देखा । वह प्रभावित हुआ । उसने कविता का अर्थ समझा और कविवर को मुक्त कर दिया। इसीलिए यह कविता सङ्कटमोचन नाम से प्रसिद्ध है। इसका प्रचार भी खूब है। इसमें भक्तिवाद का पूर्ण चित्रण हैवीतरागविज्ञानता का स्थान इसमें भक्ति-रस ने ले लिया है। प्रेमीजी ने लिखा है कि "वृन्दावनजी स्वामाविक कवि थे। उन्हें जो कवित्वशक्ति प्राप्त हुई थी, उनमें जो कविप्रतिभा थी, उसका उपार्जन पुस्तकों अथवा किसी के उपदेश द्वारा नहीं हुआ था, किन्तु वह पूर्व जन्म के संस्कार से प्राप्त हुई थी। उनकी कविता में स्वाभाविकता और सरलता बहुत है। शृंगाररसकी कविता करने की ओर भी उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं हुई। जिस रस के पान करने से जरामरणरूप दुख अधिक नहीं सताते हैं और जिससे संसार प्रायः विमुख हो रहा है, उस अध्यात्म तथा भक्तिरस के मंथन करने में ही कविवर की लेखनी डूबी रही है।"
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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