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संक्षिप्त इतिहास.]
१६१ को प्राप्त हुआ था। कविवर काशी में बाबरशहीद की गली में रहते थे। उगके वंशज अब तक आरा में मौजूद हैं। कविवर के ज्येष्ठ पुत्र बाबू अजितदास की ससुराल आरा में थी और वह वहाँ ही रहने लगे थे। अपने पिता की तरह वह भी कवि थे। कविवर ने 'छन्दशतक' की रचना उन्हीं के लिए की थी। कविवर की इच्छा थी कि तुलसीकृत 'रामायण' के सदृश एक जैन रामायण बनाई जावे, तो संसार का बहुत उपकार हो, परन्तु उनकी यह इच्छा पूर्ण नहीं हुई। निदान अन्तिम साँस लेते हुए अपने पुत्र से कविवर ने कहा कि वह उनकी इस इच्छा को पूर्ण करें। योग्य पुत्र ने यही किया। उन्होंने 'जैन रामायण' रची, परंतु उन्होंने उसके ७१ सर्ग ही पूर्ण कर पाये थे कि वह असमय में ही कालकवलित हो गये ! इस तरह कविवर की इच्छा पूर्ण न हुई । वह अधूरी रामायण भी अप्रकाशित है । बाबू हरिदासजी उसकी पूर्ति करना चाहते थे, परंतु वह उसमें सफल हुए या नहीं, यह अज्ञात है।
कविवर की माता का नाम सिताबी था और उनकी पत्नी का रुक्मणी था। रुक्मणी एक धर्मपरायण और पतिव्रता रमणी थीं। वह लिखना पढ़ना भी अच्छी तरह जानती थीं। कविवर ने निम्नलिखित छन्द उन्हीं को लक्ष्य करके रचा ऐसा प्रतीत होता है
"प्रमदा प्रवीन व्रतलीन पावनी । दिढ़ शीलपालि कुल रीति राखिनी ॥ जल अन्न शोधि मुनिदानदायिनी । वह धन्य नारि मृदुमंजुभाषिनी ॥"