SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [हिन्दी जैन साहित्य का "धर पत्र मित्र को प्रीति धरि, पढ़ें रीति यह सजना । तब मिलने के सम होय सुख, सुधा पयोनिधि मजना ॥ जैसे वृन्दावन मांहि नारायन केलि करी, तैसे 'वृन्दावन' मित्र केरे है बनारसी। वंशरीति रागरंग ताल ताल आये गये, मान ठान आनि आनि धरेगा बनारसी ॥ कुंजगली आपन में पण्य धरै अंबर को, __अंगना को अर्थ लेय देत यों बनारसी । हर कर्म राक्षस को, निकट न आन देत, संतनि सों प्रीति जाकी ऐसा भावनारसी ॥" मित्र के लिए शाश्वतानन्ददायी शिवरमणी वर लेने की कामना भी क्या खूब है__"अनुभौ करि आतमशुद्ध गहो। तजि बंध विभाव निचिंत रहो। जिन आगमसार सुशीश धरो। शिव कामिनि पावनि वेगि वरौ ॥" जयचंद्रजी की गद्यशैली भी अच्छी है। उनके कई ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। वृन्दावनजी इस शताब्दि के सर्वश्रेष्ठ जैनकवि हैं। उनका जन्म शाहाबाद जिले के बारा नामक ग्राम में सं० १८४८ को हुआ था। वह गोयल गोत्री अग्रवाल थे। उनके पिता का नाम धर्मचन्दजी था । जब कवि १२ वर्ष के थे तब वह सं० १८६० में अपने पिता के साथ बनारस में आ रहे थे। वहाँ उस समय श्री काशीनाथजी आदि विद्वज्जनों की सत्संगति का लाभ वृन्दावनजी हि. जै० सा० इ०, पृ० ७३-७५ ।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy