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दिस इतिहास ]
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कहा जाता है कि दीवान अमरचंद्रजी के कारण पंडितजी को राज्य में एक सम्माननीय पद प्राप्त हुआ था । इस राजकर्मचारी के पद से उन्होंने राजा और प्रजा दोनों को हितकर अनेक कार्य किये । निस्ल देह टोडरमलजी का नाम जैनसाहित्य में अमर है ।
जयचन्द्रजी को प्रेमीजी इस शताब्दि के लेखकों में दूसरे नम्बर पर बिठाते हैं । वह भी जयपुर के रहने वाले थे और छावड़ा गोत्री खंडेलवाल थे। उन्होंने निम्नलिखित प्रन्थों की भाषावचनिकायें लिखी हैं
१. सर्वार्थसिद्धि (१८६१ ), २. परीक्षामुख ( न्यायशास्त्र ) (१८६३), ३. द्रव्यसंग्रह (१८६३), ४. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा । ( १८६६ ), ५. आत्मख्यातिसमयसार ( १८६४ ), ६. देवागम ( न्याय), (१८८६), ७. अष्टपाहुड (१८६७), ८. ज्ञानार्णव (१८६९), ९. भक्तामर चरित्र (१८७० ), १०. सामायिकपाठ, ११. चन्द्रप्रभकाव्य के द्वितीय सर्ग का न्यायभाग, १२. मतंसमुच्चय (न्याय), १३. पत्रपरीक्षा ( न्याय ) |
कठिन २ प्रन्थों के हैं।
ये सब अनुवाद संस्कृत-प्राकृत के इनमें पाँच तो केवल न्याय विषय के हैं, अवशेष सात्त्विक ग्रंथ हैं । 'भक्तामरचरित्र' केवल एक कथाग्रन्थ है । इनके अतिरिक्त जयचंद्रजी के रचे हुए अच्छे २ पद और विनतियाँ भी मिलती हैं । 'द्रव्यसंग्रह' का पद्यानुवाद भी उन्होंने किया था। इनकी लिखी हुई एक छंदबद्ध चिट्ठी प्रेमीजी ने प्रकाशित की थी। वह सं० १८७० की लिखी हुई है। उसका नमूना यह है
* हि० जै० सा० इ० पृ० ७३-७४ ।