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________________ संक्षिप्त इतिहास २८७ आपका स्वर्गवास हो चुका होगा और यदि आपकी मृत्यु ३२-३३ वर्ष की अवस्था में हुई हो तो आपका जन्म वि० सं० १७९३ के लगमग माना जा सकता है। भापकी लिखी हुई एक धर्ममर्मपूर्ण चिट्ठी भी है जो आपने मुलतान के पंचों को लिखी थी। यह एक छोटी-मोटी पुस्तक के तुल्य है। छप चुकी है। गोम्मटसारवचनिका भी कलकत्ते से प्रकाशित हो चुकी है। 'मोक्षमार्गप्रकाशक' की पूर्ति का उद्योग स्व० ० शीतलप्रसादजी ने उसका दूसरा खण्ड लिखकर किया था। निस्सन्देह टोडरमलजी कृत मोक्षमार्गप्रकाशक एक अद्वितीय रचना है। उसकी निर्माण शैली वैज्ञानिक ढंग की है । यह पुनः प्रकाश में आना चाहिये। ___ श्रीयुत पं० परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ ने लिखा है कि "श्रीमान पण्डितप्रवर टोडरमलजी १९ वीं शताब्दि के उन प्रतिभाशाली विद्वानों में से थे जिन पर जैन-समाज ही नहीं, सारा भारतीय समाज गौरव का अनुभव कर सकता है। १८ वीं शताब्दि के अन्त में वा १९ वीं के प्रारंभ में उनका शुभ जन्म ढूंढारदेश के सवाई जयपुर नगर में हुभा था। उनके पिता का नाम जोगीदास था। दे दिगम्बर जैनधर्म के धारक प्रकाण्ड पण्डित थे। 'यपि पं० टोडरमलजी के समय अपने या अन्य मतों के प्रन्थ इतने सुलभ नहीं थे जितने कि आज हैं, फिर भी उन्होंने अपनी मात्र २८ वर्ष की अत्यल्प आयु में उन्हें प्राप्त करके अध्ययन-मनन किया और साथ ही इतना लिखा जितना सतत ५० वर्ष में भी लिखा जाना अशक्य-सा प्रतीत होता है। आज हम जब २८ वर्ष की आयु में अपना साधारण अध्ययन ही समाप्त नहीं कर पाते, तक पं० R .सा. इति• पृ. ३-७४
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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