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[हिन्दी जैन साहित्य लब्धिसार और क्षपणासार भी शामिल है। इसकी श्लोक-संख्या लगभग ४५ हजार है । यह नेमिचन्द्र स्वामी के प्राकृत 'गोम्मटसार' की भाषाटीका है। इसमें जैनधर्म के कर्म-सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन है। दूसरा प्रन्थ त्रैलोक्यसारवचनिका है। यह भी प्राकृत का अनुवाद है। इसमें जैनमत के अनुसार भूगोल और खगोल का वर्णन है। इसकी श्लोकमख्या लगभग १०-१२ हजार होगी। तीसरा प्रन्थ गुणभद्रस्वामीकृत संस्कृत 'आत्मानुशासन की वचनिका' है। इसमें बहुत ही हृदयग्राही और भाध्यात्मिक उपदेश हैं। भर्तृहरि के वैराग्यशतक के ढंग का है। शेष दो अन्य अधूरे हैं-१. पुरुषार्थसिन्युपाय की वर्षानका और २. मोक्षमार्गप्रकाशक। इनमें से पहले प्रन्थ को तो पं० दौलतरामजी काशलीवाल ने पूर्ण कर दिया था, परन्तु दूसरा ग्रन्थ मोक्षमार्गप्रकाशक अधूरा ही है। यह छप चुका है । ५०० पृष्ठ का है। बिल्कुल स्वतन्त्र है। गग हिन्दी में जैनों का यही एक प्रन्थ है, जो तात्त्विक होकर भी स्वतन्त्र लिखा गया है। इसे पढ़ने से मालूम होता है कि यदि टोडरमलजी वृद्धावस्था तक जीते, तो जैन-साहित्य को अनेक अपूर्व रमों से अलंकृत कर जाते । आपके प्रन्थों की भाषा जयपुर के बने हुए तमाम प्रन्यों से सरल, शुद्ध और साफ है। अपने प्रन्थों में मंगलाचरण आदि में जो आपने पद्य दिये हैं, उनके पढ़ने से मालूम होता है कि आप कविता भी अच्छी कर सकते थे। आपकी जन्म और मृत्यु की तिथियाँ हमें मालूम नहीं हैं। आपने गोम्मटसार की टीका वि० सं० १८१८ में पूर्ण की है और भापके पुरुषार्थसिद्प्युपाय का शेष भाग दौलतरामजी ने सं० ८२७ में समाप्त किया है अर्थात् इससे वर्ष दो वर्ष पहले